Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 54

मूल श्लोक: 54

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥

शब्दार्थ

  • अर्जुन उवाच — अर्जुन ने कहा
  • स्थितप्रज्ञस्य — स्थिरबुद्धि वाले पुरुष की
  • का भाषा — क्या लक्षण / क्या पहचान है
  • समाधिस्थस्य — समाधि में स्थित (आत्मस्थित) व्यक्ति की
  • केशव — हे केशव (श्रीकृष्ण)
  • स्थितधीः — जिसकी बुद्धि स्थिर है
  • किं प्रभाषेत — वह क्या बोलता है
  • किम् आसीत् — वह कैसे बैठता है
  • व्रजेत किम् — कैसे चलता है

अर्जुन ने कहाः हे केशव! दिव्य चेतना में लीन मनुष्य के क्या लक्षण हैं। वह सिद्ध पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यहाँ अर्जुन ने आत्मिक जिज्ञासा की गहराई से भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया है। अब वह युद्ध की परिस्थिति से हटकर जीवन के अंतिम सत्य की ओर मुड़ रहा है।

‘स्थितप्रज्ञ’ का अर्थ है – ऐसा व्यक्ति जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी हो, जिसे आत्मा का साक्षात्कार हो चुका हो, और जो अब संसार के द्वंद्वों में नहीं उलझता।

‘समाधिस्थ’ का अर्थ है – जो आत्मा में स्थित है, जिसकी चेतना बाहरी विषयों से हटकर भीतर केंद्रित हो गई है।

अर्जुन का प्रश्न अत्यंत व्यावहारिक है – वह केवल दार्शनिक उत्तर नहीं चाहता, वह जानना चाहता है कि:

  • आत्मज्ञानी व्यक्ति व्यवहार में कैसा होता है?
  • वह क्या बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है?
  • उसके जीवन में ऐसा क्या परिवर्तन आता है जो उसे सामान्य मनुष्य से भिन्न करता है?

यह प्रश्न केवल अर्जुन का नहीं, हर साधक का है। जब हम आत्मज्ञान की बात सुनते हैं, तो यह स्वाभाविक होता है कि हम जानना चाहें — ऐसा ज्ञानी दिखता कैसा है, उसका आचरण कैसा है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा’ — उसकी भाषा क्या है?

यहाँ ‘भाषा’ का अर्थ केवल वाणी नहीं है, बल्कि पहचान या लक्षण है।

  • वह व्यक्ति कैसा प्रतीत होता है?
  • उसके व्यवहार से कैसे जाना जाए कि वह आत्मज्ञानी है?

श्रीकृष्ण बाद के श्लोकों (55–72) में इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर देते हैं।

‘समाधिस्थस्य’ — जो समाधि में स्थित है

यह केवल ध्यान में बैठा हुआ व्यक्ति नहीं, बल्कि जो:

  • हर समय आत्मा में स्थित है,
  • संसार के बीच रहकर भी अंदर से शून्य, शांत, और आत्मस्वरूप में लीन है।

‘स्थितधीः किं प्रभाषेत’ — वह क्या बोलता है?

  • क्या उसकी वाणी भी बदली हुई होती है?
  • क्या वह व्यर्थ नहीं बोलता?
  • क्या उसकी बातों में केवल आत्मज्ञान की झलक होती है?

‘किमासीत व्रजेत किम्’ — वह कैसे बैठता और चलता है?

  • यह केवल शरीर की मुद्राएँ नहीं हैं, बल्कि उसका संपूर्ण जीवनचरण है।
  • वह कैसे जीता है, कैसे कार्य करता है, कैसे संबंध निभाता है?

अर्जुन का यह प्रश्न योग का व्यवहारिक पक्ष जानने का प्रयास है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

अर्जुन का यह प्रश्न दर्शाता है कि ज्ञान केवल मानसिक या वैचारिक विषय नहीं है, बल्कि उसका प्रभाव व्यवहार पर होना चाहिए।

गीता केवल उपदेश नहीं देना चाहती, बल्कि जीवन को बदलना चाहती है। इसलिए अर्जुन पूछता है:

  • “मैं कैसे पहचानूँ कि कोई आत्मज्ञानी है?”
  • “क्या मेरे जीवन में वह परिवर्तन आ सकता है?”

यह श्लोक ‘ज्ञान और व्यवहार’ के बीच की कड़ी को उद्घाटित करता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • स्थितप्रज्ञ — वह जो आत्मा में स्थित हो, न कि केवल विचारों में उलझा हो
  • भाषा — जीवन की भाषा, व्यक्तित्व की भाषा
  • प्रभाषेत — वाणी जो अंतर्मन को प्रकट करती है
  • आसीत / व्रजेत — संपूर्ण जीवनचर्या

यह संकेत करता है कि योग की सच्ची पहचान व्यक्ति के व्यवहार से होती है — वह क्या खाता है, कैसे बोलता है, कैसे चलता है, किससे कैसा व्यवहार करता है।

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • आत्मज्ञान केवल भीतर की स्थिति नहीं, वह बाहर के व्यवहार में झलकता है।
  • ज्ञानी व्यक्ति की पहचान उसके शांति, संतुलन, और समत्व से होती है।
  • धर्म केवल उपदेशों से नहीं, जीवन के आचरण से प्रकट होता है।
  • सच्चा योगी भीतर से आत्मस्थ और बाहर से सहज होता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मेरे व्यवहार में स्थिरता और समत्व झलकता है?
क्या मैं केवल ज्ञान को जानता हूँ या उसे जी भी रहा हूँ?
क्या मेरी वाणी आत्मा से आती है या केवल मन से?
क्या मैं जानना चाहता हूँ कि ‘स्थितप्रज्ञ’ क्या है, या बनना भी चाहता हूँ?
क्या मेरे जीवन की भाषा योग की भाषा बन रही है?

    निष्कर्ष

    यह श्लोक भगवद्गीता के चिंतन को साधना की दिशा में ले जाता है।
    यह बताता है कि केवल विचार करना पर्याप्त नहीं — हमें यह भी जानना होगा कि ज्ञान को जीवन में कैसे उतारें।

    ‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा’ — यह प्रश्न हमारे जीवन को भीतर और बाहर से एकसमान बनाने की प्रेरणा है।

    भगवद्गीता अब ज्ञान को व्यवहार में लाने की यात्रा शुरू करती है, और अगले श्लोकों में श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि सच्चे आत्मज्ञानी की पहचान क्या है, और हम स्वयं उस अवस्था तक कैसे पहुँच सकते हैं।

    यह श्लोक आत्ममंथन की शुरुआत है — एक साधक का ईमानदार प्रश्न, और अध्यात्म का व्यावहारिक द्वार।

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