Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 58

मूल श्लोक: 58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

शब्दार्थ

  • यदा — जब
  • संहरते — समेट लेता है / वापस ले लेता है
  • — और
  • अयम् — यह (योगी, ज्ञानी पुरुष)
  • कूर्मः — कछुआ
  • अङ्गानि — अंगों को (इन्द्रियाँ)
  • इव — की भांति
  • सर्वशः — सभी तरह से
  • इन्द्रियाणि — इन्द्रियाँ
  • इन्द्रियार्थेभ्यः — इन्द्रिय विषयों (आकर्षणों) से
  • तस्य — उस (व्यक्ति) की
  • प्रज्ञा — बुद्धि, विवेक
  • प्रतिष्ठिता — स्थिर / स्थापित

जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उनके विषय भोगों से खींच लेने के लिए उसी प्रकार से योग्य होता है, जैसे एक कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके उन्हें कवच के भीतर कर लेता है, वह दिव्य ज्ञान में स्थिर हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में श्रीकृष्ण “स्थितप्रज्ञ” व्यक्ति की एक और विशेषता का वर्णन कर रहे हैं — इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण।

कहते हैं कि कर्मयोग, ध्यान या आत्मज्ञान की साधना तभी सफल होती है जब:

  • मनुष्य इन्द्रिय-संयम का अभ्यास करे,
  • और विषयों की ओर स्वाभाविक आकर्षण को नियंत्रित कर पाए।

यह श्लोक बताता है कि:

  • जैसे कछुआ संकट आने पर अपने अंगों को भीतर खींच लेता है,
  • वैसे ही आत्मज्ञानी व्यक्ति भी संसार के विषयों से अपनी इन्द्रियों को भीतर की ओर मोड़ लेता है

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

‘कूर्मोऽङ्गानीव’ — कछुए की तरह

कछुआ जब कोई भय या बाधा देखता है, तो वह:

  • अपने हाथ, पैर, मुँह सभी को खोलने के बजाय भीतर समेट लेता है,
  • और पूर्णरूपेण आत्म-रक्षा की स्थिति में चला जाता है

यह प्रतीक बताता है कि:

  • विषयों की लुभावनी उपस्थिति से स्वयं को बचाना चाहिए,
  • आत्म-स्थिति में रहना ही सुरक्षा है

‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः संहरते’ — इन्द्रियों को विषयों से समेट लेना

  • हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (नेत्र, कान, नाक, जिव्हा, त्वचा) निरंतर बाह्य विषयों से आकर्षित होती रहती हैं।
  • जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को सजगता और आत्मनियंत्रण के साथ बाह्य आकर्षणों से हटाकर भीतर की ओर ले जाता है — वही स्थिर बुद्धि वाला कहलाता है।

‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ — उसकी बुद्धि स्थिर होती है

  • इन्द्रिय संयम सच्ची प्रज्ञा की बुनियाद है।
  • यदि मनुष्य इन्द्रिय-प्रेरित है, तो उसकी बुद्धि चंचल रहेगी।
  • परंतु यदि इन्द्रियाँ आत्मसाधना के अधीन हों, तो प्रज्ञा स्थिर होती है, और आत्मा की ओर उन्नति होती है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक योग की बुनियाद — इन्द्रिय-संयम पर प्रकाश डालता है।

  • ज्ञान केवल विचार नहीं, बल्कि संवेदनाओं पर नियंत्रण भी है।
  • बुद्धि केवल तर्क की क्षमता नहीं, बल्कि इन्द्रियों को अनुशासित करने की क्षमता भी है।
  • गीता का मार्ग केवल बाहरी व्यवहार नहीं, बल्कि आंतरिक संयम और अनुशासन का भी मार्ग है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • कूर्मः — आत्मसाधक, योगी
  • अंगानि — इन्द्रियाँ (दृष्टि, श्रवण, स्पर्श आदि)
  • संहरते — संयम, आत्मवश
  • इन्द्रियार्थेभ्यः — विषयों की ओर आकर्षण
  • प्रज्ञा प्रतिष्ठिता — स्थिर और आत्मबोधयुक्त बुद्धि

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • आत्मबोध की ओर जाने वाला मार्ग इन्द्रियों के संयम से होकर ही जाता है।
  • जो व्यक्ति अपने अनुभवों, लालसाओं, और इच्छाओं को नियंत्रित कर सकता है — वही आत्मिक रूप से स्थिर हो सकता है।
  • यह केवल जबरदस्ती दबाना नहीं है, बल्कि सजगता और विवेक से की गई आत्म-अनुशासन की प्रक्रिया है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपनी इन्द्रियों को विषयों से सहजता से हटा पाता हूँ?
क्या मेरी दृष्टि, श्रवण, स्वाद आदि पर मेरा संयम है?
क्या मैं कभी भी विषयों की ओर खिंचकर अपना विवेक खो बैठता हूँ?
क्या मैंने कभी भीतर की ओर जाने की चेष्टा की है, जब बाहरी संसार आकर्षक लग रहा था?
क्या मैं कछुए की तरह आवश्यकता पड़ने पर ‘भीतर’ लौट सकता हूँ?

    निष्कर्ष

    यह श्लोक आत्मनियंत्रण की प्राकृतिक उपमा देकर एक अत्यंत गूढ़ सत्य को सरल रूप में प्रकट करता है।

    ज्ञान, विवेक, और प्रज्ञा तब तक अधूरी हैं जब तक इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण न हो

    जैसे कछुआ आत्म-संरक्षण के लिए अपने अंगों को समेटता है, वैसे ही साधक को चाहिए कि:

    • विषयों की भीड़ में भी वह भीतर की ओर लौटे,
    • इन्द्रियों को आत्मसाधना के अधीन रखे,
    • और आत्मस्थित हो

    यही स्थिर प्रज्ञा का आधार है, यही गीता की साधना का रहस्य।
    जो इस अभ्यास में समर्थ हो जाता है — वही वास्तव में ज्ञानी है, और वही मोक्ष का अधिकारी है।

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