मूल श्लोक : 6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥
शब्दार्थ:
- न — नहीं
- च — और
- एतत् — यह
- विद्मः — हम जानते
- कतरत् — कौन-सा (विकल्प)
- नः — हमारे लिए
- गरीयः — श्रेष्ठ, अधिक कल्याणकारी
- यद्वा — या तो
- जयेम — हम जीतें
- यदि वा — या फिर
- नः जयेयुः — वे हमको जीतें
- यान् एव — जिनको ही
- हत्वा — मारकर
- न जिजीविषामः — जिनके बिना हम जीना नहीं चाहते
- ते — वे
- अवस्थिताः — खड़े हैं
- प्रमुखे — हमारे सामने
- धार्तराष्ट्राः — धृतराष्ट्र के पुत्र (कौरव)
हम यह भी नहीं जानते कि इस युद्ध का परिणाम हमारे लिए किस प्रकार से श्रेयस्कर होगा। उन पर विजय पाकर या उनसे पराजित होकर। यद्यपि उन्होंने धृतराष्ट्र का पक्ष लिया है और अब वे युद्धभूमि में हमारे सम्मुख खड़े हैं तथापि उनको मारकर हमारी जीवित रहने की कोई इच्छा नहीं होगी।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन के भीतर चल रहे अति गहन मानसिक द्वंद्व और नैतिक संकट को उजागर करता है।
1. “न चैतद्विद्मः” — दिशाहीनता का चरम क्षण:
- अर्जुन स्वीकार करते हैं कि अब उन्हें यह भी नहीं पता कि क्या करना उचित है —
यानी जीतना, हारना, या युद्ध ही नहीं करना? - यह धर्म और अधर्म के बीच का संकट नहीं, बल्कि कर्तव्य और करुणा के टकराव का परिणाम है।
2. “कतरन्नो गरीयः” — कौन-सा विकल्प श्रेष्ठ है?
- यह प्रश्न केवल एक योद्धा का नहीं,
एक सजग आत्मा का है जो धर्म, संबंध और परिणाम सबको तौल रहा है। - अर्जुन यह तय नहीं कर पा रहे कि—
- क्या जीतना उचित है और राज्य पाना?
- या हारना बेहतर, ताकि रक्तपात और अपराध से बच सकें?
3. “यान् एव हत्वा न जिजीविषामः” — रिश्तों की गहराई:
- जिन लोगों की मृत्यु के बाद अर्जुन को जीवन भी अस्वीकार्य लगता है, वे ही अब शत्रु हैं।
- यह दर्शाता है कि अर्जुन युद्ध को केवल राजनीतिक नहीं, गहन मानवीय संदर्भ में देख रहे हैं।
4. “प्रमुखे धार्तराष्ट्राः” — विकल्पहीनता की स्थिति:
- अर्जुन की विरुद्ध पक्ष से युद्ध करने की अनिच्छा तब और गहरी हो जाती है
जब वे देखते हैं कि उन्हीं अपनों को उन्हें मारना होगा।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
1. अर्जुन का द्वंद्व — आत्मा का द्वंद्व:
- यह स्थिति एक अंतःकरण की पुकार है —
जब मनुष्य कर्म तो करना चाहता है, पर क्या और क्यों, यह स्पष्ट नहीं होता।
2. रिश्तों की गाँठ और धर्म की कसौटी:
- अर्जुन के लिए कौरव केवल शत्रु नहीं, बचपन के साथी, रिश्तेदार और गुरुजन के निकट हैं।
- धर्म का प्रश्न तब और कठिन हो जाता है जब कर्तव्य अपनों के विरुद्ध उठ खड़ा हो।
3. ‘जिजीविषा’ का खो जाना — अस्तित्व की जड़ें हिलती हैं:
- अर्जुन यहाँ कहते हैं कि अगर इन अपनों को मारना पड़ा,
तो जीवन जीने की इच्छा ही समाप्त हो जाएगी। - यह एक आध्यात्मिक वैराग्य की नहीं, बल्कि संवेदनशील मन की पीड़ा है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
न विद्मः | विवेक का धुंधला पड़ना |
गरीयः | श्रेष्ठता का विवेक (धर्म बनाम मोह) |
जय/पराजय | कर्म का फल, लेकिन उससे परे भी कुछ बड़ा |
जिजीविषा का क्षय | मोह, पश्चाताप और नैतिक संकट का चरम |
प्रमुखे धार्तराष्ट्राः | जीवन की वे चुनौतियाँ जो हमारे निकटतम संबंधों से जुड़ी होती हैं |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- कभी-कभी जीवन में हम ऐसे निर्णयों के द्वार पर खड़े होते हैं जहाँ हर विकल्प हमें पीड़ादायक लगता है।
- अर्जुन की यह स्थिति हमें बताती है कि: “सत्य केवल तथ्य नहीं होता — वह भावना, कर्तव्य और आत्मा की पुकार से बनता है।”
- आधुनिक जीवन में भी हमें कई बार यह तय करना पड़ता है कि:
- क्या हमें रिश्तों की कीमत पर सफलता चाहिए?
- या सच्चाई की कीमत पर शांति?
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या मैं भी ऐसे निर्णयों के सामने खड़ा हूँ, जहाँ हर विकल्प पीड़ादायक लगता है?
क्या मैं उन लोगों को ‘शत्रु’ मान बैठा हूँ, जो कभी मेरे आदर्श या प्रियजन रहे हैं?
क्या मेरी ‘जीत’ वास्तव में कल्याणकारी होगी, या वह केवल मूल्यों की हत्या करके प्राप्त होगी?
क्या मैं अर्जुन की तरह अपने अंतःकरण की सुनने का साहस रखता हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक अर्जुन के द्वंद्व का चरम बिंदु है — जहाँ कर्तव्य, करुणा, रिश्ते, और धर्म की परिभाषाएँ उलझ जाती हैं।
यह हमें सिखाता है:
“हर युद्ध जीतने के लिए नहीं होता — कुछ युद्ध आत्मा को खोजने के लिए होते हैं।”
“धर्म केवल बाहरी नियम नहीं — वह अंतरात्मा की पुकार भी है।”