मूल श्लोक: 61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥61॥
शब्दार्थ
- तानि सर्वाणि — वे सभी (इन्द्रियाँ)
- संयम्य — संयमित करके, नियंत्रण में रखकर
- युक्त आसीत — संयमी होकर स्थित होता
- मत्परः — मुझमें लीन, मुझमें स्थित
- वशे — वश में, नियंत्रण में
- हि — निश्चय ही
- यस्येन्द्रियाणि — जिसकी इंद्रियाँ
- तस्य — उसकी
- प्रज्ञा — बुद्धि, विवेक
- प्रतिष्ठिता — स्थित होती है, स्थिर होती है
वे जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और अपने मन को मुझमें स्थिर कर देते हैं, वे दिव्य ज्ञान में स्थित होते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि जो योगी, जो साधक अपने पांचों इंद्रियों को नियंत्रित कर लेता है और समस्त मन और भावना को ईश्वर की ओर केंद्रित कर लेता है, वही स्थिर बुद्धि वाला कहलाता है। यह बुद्धि तभी स्थिर हो पाती है जब इंद्रियाँ वश में होती हैं। इंद्रियाँ मनुष्य को बाहरी वस्तुओं की ओर आकर्षित करती हैं, और यदि वे अनियंत्रित रहें तो मन विचलित और अस्थिर हो जाता है।
“मत्परः” होने का अर्थ है कि मनुष्य अपनी संपूर्ण चेतना को भगवान में लगाता है, अपने अहंकार और इच्छाओं को त्याग कर ईश्वर की भक्ति और स्मृति में लीन रहता है। ऐसे व्यक्ति की बुद्धि न तो चंचल होती है और न ही भ्रमित। वह शांति, समता और ज्ञान की स्थिति में होता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक योगदर्शन का सार प्रस्तुत करता है। योग की परिभाषा है— इंद्रियसंयम से मन की स्थिति को स्थिर करना। यहां “युक्त आसीत मत्परः” से संकेत मिलता है कि मनुष्य को अपनी इंद्रियों को वश में रखकर ईश्वर में लीन होना चाहिए। ऐसा होने पर प्रज्ञा यानी बुद्धि स्थिर और अपराजेय हो जाती है।
अर्थात, मनुष्य की अंतर्निहित चेतना तभी स्थिर होती है जब वह सांसारिक वासनाओं और इंद्रियों के चक्कर से मुक्त होकर ईश्वर की ओर अपने मन को केंद्रित कर ले। यह अवस्था समत्व, समाधि और सच्चे ज्ञान की पहचान है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- इंद्रियाँ — ये हमारे पाँच बाहरी संवेदक अंग हैं जो हमें भौतिक जगत से जोड़ते हैं।
- संयम्य — इसका मतलब है इन्हें अपने वश में करना, इच्छाओं पर नियंत्रण।
- मत्परः — केवल भगवान को ही सर्वोपरि मानना, जीवन का केंद्र भगवान को बनाना।
- प्रज्ञा प्रतिष्ठिता — ज्ञान, विवेक और चेतना की स्थिरता।
यह श्लोक बताता है कि जब मनुष्य अपनी इंद्रियों के गुलाम नहीं रहता, बल्कि उन्हें संयमित करता है और अपनी चेतना को ईश्वर में केंद्रित करता है, तभी उसकी बुद्धि असली अर्थ में स्थिर और उच्चतम ज्ञान से युक्त होती है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इंद्रियों का संयम जीवन में अत्यंत आवश्यक है।
- मनुष्य को अपने अहंकार और इच्छाओं से ऊपर उठकर ईश्वर को ही जीवन का परम लक्ष्य बनाना चाहिए।
- संयम और समर्पण से मन की अशांति दूर होती है और प्रज्ञा स्थापित होती है।
- स्थिर बुद्धि से व्यक्ति संसार के दुःखों से प्रभावित नहीं होता और आध्यात्मिक उन्नति करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रख पाता हूँ?
क्या मेरा मन ईश्वर में केंद्रित है या बाहरी विषयों में उलझा रहता है?
क्या मेरी बुद्धि परिस्थितियों के अनुसार विचलित होती है या स्थिर रहती है?
क्या मैं अपने कर्मों को भगवान की इच्छा मानकर करता हूँ?
क्या मैं अपने अहंकार से ऊपर उठकर समर्पण भाव से जी रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें इंद्रिय संयम और ईश्वर समर्पण का मार्ग दिखाता है। जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में रखकर पूर्ण रूप से भगवान में स्थित होता है, वही सच्चा ज्ञानी और स्थिरबुद्धि कहलाता है।
यह ज्ञान और संयम का योग है, जो अंततः मनुष्य को दुःखों से मुक्त कर परम शांति की ओर ले जाता है। इस श्लोक से हमें यह सीख मिलती है कि इंद्रियों के वश में रहने की बजाय हमें उन्हें संयमित कर अपनी चेतना को परमात्मा में लगाना चाहिए। तभी जीवन का सच्चा उद्देश्य पूर्ण होता है।