मूल श्लोक : 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
शब्दार्थ:
- कार्पण्य-दोष-उपहत-स्वभावः — कृपणता (दुर्बलता) के दोष से प्रभावित स्वभाव वाला
- पृच्छामि — मैं पूछता हूँ
- त्वां — आपसे (हे कृष्ण)
- धर्म-सम्मूढ-चेताः — धर्म के विषय में भ्रमित चित्त वाला
- यत् — जो
- श्रेयः — परम कल्याण (श्रेष्ठ हित)
- स्यात् — हो
- निश्चितम् — निश्चित (असंदिग्ध, अटल)
- ब्रूहि — बताइए
- तत् — वह
- मे — मुझे
- शिष्यः ते अहम् — मैं आपका शिष्य हूँ
- शाधि — मुझे उपदेश दीजिए
- माम् त्वां प्रपन्नम् — मैं आपके शरणागत हूँ
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ और गहन चिन्ता में डूब कर कायरता दिखा रहा हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरणागत हूँ। कृपया मुझे निश्चय ही यह उपदेश दें कि मेरा हित किसमें है।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक अर्जुन के भीतर घटित एक महान आध्यात्मिक परिवर्तन का सूचक है। अब वह केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि एक विनीत जिज्ञासु और साधक के रूप में सामने आता है।
1. “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः” — मानसिक दुर्बलता की स्वीकृति:
- अर्जुन स्वीकार करता है कि उसका स्वभाव कृपणता (कार्पण्य) से ग्रस्त हो गया है।
- यहाँ “कृपणता” का अर्थ केवल लोभ नहीं, बल्कि नैतिक निर्णय लेने में अक्षम आत्मा की दुर्बलता है।
- यह वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति स्वयं से पलायन करता है, और अपने कर्तव्य से पीछे हटना चाहता है।
2. “धर्मसम्मूढचेताः” — धर्म का भ्रम:
- अर्जुन कहता है कि उसका मन धर्म के मार्ग में सम्पूर्ण रूप से भ्रमित हो चुका है।
- उसे समझ नहीं आ रहा कि उसका कर्तव्य क्या है — युद्ध करना या त्याग करना?
- यह नैतिक संकट आधुनिक युग के हर संवेदनशील मनुष्य का भी संकट है।
3. “पृच्छामि त्वां… ब्रूहि तन्मे” — आध्यात्मिक विनम्रता:
- अर्जुन अब सलाह नहीं दे रहा, वह शरणागत होकर पूछ रहा है।
- वह चाहता है कि श्रीकृष्ण उसे स्पष्ट और निश्चित ज्ञान दें, जो केवल श्रेय (मोक्ष या आत्मकल्याण) की ओर ले जाए, न कि केवल प्रेय (क्षणिक लाभ) की ओर।
4. “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” — समर्पण का क्षण:
- यह गीता का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ है।
अर्जुन अब ‘मित्र’ से ‘शिष्य’ में रूपांतरित हो जाता है। - यह वह क्षण है जहाँ ज्ञानप्राप्ति के लिए विनय और शरणागति अनिवार्य है।
- अर्जुन यह स्वीकार करता है कि अब उसे मार्गदर्शन चाहिए, और वह पूरी तरह से श्रीकृष्ण के अधीन है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
1. सच्चा ज्ञान तब आता है जब “मैं” हटता है:
- अर्जुन का “मैं” अब ढह रहा है।
- जब कोई “शिष्य” बनता है, तभी वह ज्ञानी की वाणी को आत्मसात कर सकता है।
2. धर्म का भ्रम = समस्त युगों की समस्या:
- अर्जुन का यह धर्म-संकट केवल युद्धक्षेत्र का नहीं,
बल्कि हर व्यक्ति की जीवन-यात्रा का प्रतिबिम्ब है। - जब रिश्ते, कर्तव्य, और आत्मा की पुकार टकराते हैं — तब व्यक्ति श्रीकृष्ण की खोज करता है।
3. शिष्यत्व — गीता सुनने की पात्रता:
- यह श्लोक गीता के उस बिंदु को चिह्नित करता है जहाँ से श्रीकृष्ण का उपदेश प्रारंभ होता है।
- जब अर्जुन कहता है “मैं आपकी शरण में हूँ”, तभी ज्ञान की वर्षा आरंभ होती है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
तत्त्व | प्रतीक |
---|---|
कार्पण्यदोष | आत्मबल और विवेक का पतन |
धर्मसम्मूढचेताः | आध्यात्मिक अज्ञान या नैतिक भ्रम |
शिष्यस्तेऽहम् | अहंकार का विसर्जन और ज्ञान के लिए समर्पण |
प्रपन्नम् | सम्पूर्ण आत्मसमर्पण — ‘मैं नहीं, तू ही है’ |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितम् | केवल सत्य और चिरस्थायी कल्याण की इच्छा |
नैतिक और सामाजिक अंतर्दृष्टियाँ:
- जीवन में जब हम निर्णय नहीं कर पाते —
तभी हमें किसी विवेकी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। - यह श्लोक हमें सिखाता है कि: “कभी-कभी अपने विचारों को छोड़कर किसी श्रेष्ठ चेतना की शरण में जाना ही सच्चा ज्ञान है।”
- अर्जुन की तरह हर मनुष्य को किसी मोड़ पर स्वीकार करना पड़ता है कि: “मैं भ्रमित हूँ। कृपया मुझे मार्ग दिखाइए।”
आध्यात्मिक चिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपनी मानसिक दुर्बलताओं को पहचानने का साहस रखता हूँ?
क्या मैं अपने ‘धर्म-संकट’ में किसी विवेकी का शिष्य बनने को तैयार हूँ?
क्या मेरी जिज्ञासा केवल ज्ञान पाने की है, या मैं श्रेय की खोज में हूँ?
क्या मैंने कभी किसी गुरु या चेतना के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण किया है?
निष्कर्ष:
यह श्लोक गीता का “जागरण-बिंदु” है।
यह वह क्षण है जब अर्जुन स्वयं को छोड़कर श्रीकृष्ण को अपनाता है — और यही मोक्ष की शुरुआत है।
“ज्ञान तब आता है जब हम शिष्य बनना स्वीकार करते हैं।”
“धर्म के भ्रम से मुक्ति का प्रथम कदम है — शरणागति।”