मूल श्लोक – 8
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
शोकम् उच्छोषणम् इन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमौ असपत्नम् ऋद्धं
राज्यं सुराणाम् अपि च अधिपत्यम्॥
शब्दार्थ:
- न हि प्रपश्यामि — मैं नहीं देख पा रहा हूँ
- मम आपनुद्यात् — जो मेरे इस (मन के)
शोक को दूर कर सके - उच्छोषणम् इन्द्रियाणाम् — जो मेरी इन्द्रियों को सुखा डाल रहा है
- अवाप्य — प्राप्त करके भी
- भूमौ — पृथ्वी पर
- असपत्नम् — बिना शत्रु के (निष्कंटक)
- ऋद्धम् राज्यं — समृद्ध राज्य
- सुराणाम् अपि च अधिपत्यम् — देवताओं के राज्य का अधिपत्य (स्वामीत्व) भी
मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। यदि मैं धन सम्पदा से भरपूर इस पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त कर लेता हूँ या देवताओं जैसा प्रभुत्व प्राप्त कर लेता हूँ तब भी मैं इस शोक को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाऊँगा।

विस्तृत भावार्थ:
“न हि प्रपश्यामि…” — अर्जुन की पूरी निराशा का चरम बिंदु:
- यहाँ अर्जुन की आध्यात्मिक और भावनात्मक टूटन स्पष्ट होती है।
- वह कह रहा है कि अब किसी भी सांसारिक वस्तु या सफलता से
उसके अंतर्मन की वेदना नहीं हट सकती।
“शोकम् उच्छोषणम् इन्द्रियाणाम्” — दुख जो इन्द्रियों को भी जला दे:
- अर्जुन का शोक इतना तीव्र है कि वह केवल मानसिक नहीं,
बल्कि शारीरिक और इन्द्रिय-स्तर तक को सुखा रहा है। - यह दुख मनुष्य के भीतर की सारी ऊर्जा को शोषित कर रहा है —
वह न देख सकता है, न सोच सकता है, न लड़ सकता है।
“अवाप्य भूमौ असपत्नम् ऋद्धं राज्यं” — निष्कंटक राज भी व्यर्थ:
- अर्जुन कहता है — “अगर मुझे पूरी पृथ्वी का भी शासन मिल जाए,
वह भी बिना किसी विरोधी के, तब भी यह दुख नहीं जाएगा।” - इसका संकेत यह है कि बाहरी सफलता, मन की शांति नहीं दे सकती।
“सुराणाम् अपि च अधिपत्यम्” — स्वर्ग का राज्य भी तुच्छ प्रतीत हो रहा है:
- यहाँ अर्जुन अपनी अवस्था की गहराई को बताता है —
कि देवताओं का राज्य भी उसे अर्थहीन प्रतीत हो रहा है।
दर्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या:
1. सांसारिक उपलब्धियाँ आध्यात्मिक पीड़ा का समाधान नहीं होतीं:
- अर्जुन की पीड़ा केवल युद्ध की नहीं है —
वह मानवता, रिश्तों और धर्म के अंतर्द्वंद्व से उत्पन्न हुई है। - इस स्तर पर सत्ता, वैभव, सत्ता — सब व्यर्थ लगते हैं।
2. मन की शांति के बिना कोई “विजय” विजय नहीं होती:
- अर्जुन का वचन यही सिखाता है कि: “यदि भीतर शांति नहीं है, तो बाहर की सारी जीतें हार जैसी हैं।”
3. यह श्लोक मनुष्य की विवेकपूर्ण पीड़ा का प्रतीक है:
- अर्जुन कोई साधारण मोह में डूबा व्यक्ति नहीं है।
वह धर्म और अधर्म, हिंसा और करुणा के बीच खड़ा एक जाग्रत आत्मा है। - उसका शोक विवेक और करुणा के टकराव से उपजा है — यह साधारण भावुकता नहीं है।
प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:
तत्त्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
शोकम् उच्छोषणम् इन्द्रियाणाम् | आत्मा का संताप जो शरीर तक को थका दे |
अवाप्य भूमौ असपत्नम् राज्यम् | संसार की सर्वश्रेष्ठ स्थिति |
सुराणाम् अपि अधिपत्यम् | स्वर्गीय ऐश्वर्य भी |
न हि प्रपश्यामि उपायम् | आत्मज्ञान के बिना कुछ भी समाधान नहीं |
जीवन के लिए शिक्षाएँ:
- भोग या भव्यता से शांति नहीं मिलती, यदि आत्मा में द्वंद्व है।
- भावनात्मक और नैतिक क्लेश, संसार की किसी उपलब्धि से नहीं मिटते।
- मनुष्य को तब तक शांति नहीं मिलती जब तक वह अपने ‘धर्म’ और ‘कर्तव्य’ की स्पष्टता नहीं पा लेता।
चिंतन के प्रश्न:
क्या मैंने भी कभी ऐसा अनुभव किया है जहाँ सभी उपलब्धियाँ भी तृप्ति नहीं देतीं?
क्या मेरे जीवन में भी कोई “शोक” है जिसे केवल आत्मिक मार्गदर्शन से ही हटाया जा सकता है?
क्या मैं भी अर्जुन की तरह जीवन के द्वंद्व में किसी श्रीकृष्ण की खोज में हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक दर्शाता है कि अर्जुन केवल बाहरी युद्ध नहीं,
बल्कि भीतर की विकलता और कर्तव्य के गहन संकट से जूझ रहा है।
वह अब यह स्वीकार कर चुका है कि:
“मेरे मन का अंधकार केवल कोई दिव्य ज्योति ही दूर कर सकती है।”
“ना राज्य, ना सुख, ना ऐश्वर्य —
मुझे चाहिए केवल सत्य और समाधान।“