मूल श्लोक – 9
सञ्जय उवाच।
एवम् उक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दम् उक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥
शब्दार्थ:
- सञ्जय उवाच — संजय ने कहा
- एवम् उक्त्वा — ऐसा कहकर
- हृषीकेशम् — हृषीकेश (इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण) से
- गुडाकेशः — निद्रा पर विजय प्राप्त करने वाला (अर्जुन)
- परन्तप — शत्रुओं को संतप्त करने वाला
- न योत्स्य इति — “मैं युद्ध नहीं करूँगा” ऐसा
- गोविन्दम् — गोविन्द (गोपों के रक्षक श्रीकृष्ण) से
- उक्त्वा — कहकर
- तूष्णीं बभूव ह — चुप हो गया, मौन में स्थित हो गया
संजय ने कहा-ऐसा कहने के पश्चात् ‘गुडाकेश’ तथा शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन ने ‘हृषीकेश’ कृष्ण से कहा, हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा और शांत हो गया।

विस्तृत भावार्थ:
“सञ्जय उवाच” — निष्पक्ष दृष्टा की वाणी:
- संजय यहाँ धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि का आँखों देखा हाल सुना रहा है।
- यह वाक्य संजय की साक्षी दृष्टि का उद्घोष है —
जहाँ वह घटनाओं को भावहीन होकर नहीं,
धार्मिक और नैतिक चेतना से वर्णन कर रहा है।
“हृषीकेशं” — श्रीकृष्ण का विशेष नाम:
- श्रीकृष्ण को ‘हृषीकेश’ कहा गया है —
इन्द्रियों के स्वामी, जो जीवन की चेतना के नियंता हैं। - अर्जुन अपनी इन्द्रियों के क्षोभ में हैं,
और श्रीकृष्ण वही हैं जो उन इन्द्रियों को संयमित करने वाले हैं।
“गुडाकेशः” — अर्जुन का विशेषण:
- अर्जुन को ‘गुडाकेश’ कहा गया है —
जो नींद (तमोगुण) पर विजय प्राप्त कर चुका है। - यह संकेत है कि अर्जुन कोई साधारण योद्धा नहीं,
सतोगुणी, जाग्रत आत्मा है —
किंतु अभी मोह के क्षण में विचलित है।
“न योत्स्य इति गोविन्दम् उक्त्वा” — स्पष्ट अस्वीकृति:
- अर्जुन श्रीकृष्ण को साफ शब्दों में कहता है:
“मैं युद्ध नहीं करूँगा।” - यह निर्णय दृढ़ दिखता है, किंतु भीतर से अभी भी विचलन और पीड़ा से भरा है।
“तूष्णीं बभूव ह” — मौन की गूंज:
- यह मौन केवल शब्दों का अभाव नहीं,
बल्कि आत्मा की गहराई में डूबने की शुरुआत है। - अर्जुन अब अपने शब्दों की सीमा तक पहुँच चुका है —
और अब गुरु श्रीकृष्ण की वाणी की प्रतीक्षा कर रहा है।
दार्शनिक एवं आध्यात्मिक व्याख्या:
1. यह मौन केवल थकावट नहीं — समर्पण का संकेत है:
- जब कोई व्यक्ति अपनी तर्क, भावनाएँ और जिज्ञासाएँ सब व्यक्त कर लेता है,
तो भीतर एक मौन भाव आता है — जहाँ ज्ञान उत्पन्न होता है।
2. अर्जुन के भीतर द्वंद्व का चरम:
- अब अर्जुन का आंतरिक युद्ध चरम पर है।
वह युद्ध भूमि पर खड़ा है — पर धर्मयुद्ध में असमंजसपूर्ण योद्धा है।
3. श्रीकृष्ण का मौन सम्मान:
- श्रीकृष्ण कुछ नहीं कहते अभी।
वे उस मौन को स्वीकारते हैं, क्योंकि यह मौन जिज्ञासु शिष्य का मौन है।
प्रतीकात्मक दृष्टिकोण:
तत्त्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
हृषीकेश | परम गुरु, इन्द्रियों के नियंत्रक, दिव्य मार्गदर्शक |
गुडाकेश | जाग्रत चेतना, आत्मसंयमी व्यक्ति जो मोहित हो गया है |
“न योत्स्य इति” | मनुष्य की धर्म-कर्तव्य से पलायन की इच्छा |
तूष्णीं बभूव | आत्मा का मौन, जहाँ अब केवल परम ज्ञान प्रवेश कर सकता है |
जीवन के लिए शिक्षाएँ:
- जब जीवन में मोह या द्वंद्व से ग्रसित हो जाएँ —
तो मौन, आत्मनिरीक्षण और गुरु की प्रतीक्षा आवश्यक है। - मौन का क्षण कभी-कभी ज्ञान का द्वार होता है।
- मनुष्य को अपने तर्क, भय और भावनाओं को पूर्ण रूप से व्यक्त करने देना चाहिए,
ताकि वह आध्यात्मिक शिक्षा को ग्रहण करने योग्य बन सके।
चिंतन के प्रश्न:
क्या मेरे जीवन में ऐसा क्षण आया है जब मैंने जीवन से कह दिया: “न योत्स्य” — मैं नहीं लड़ूंगा?
क्या मैं भी आज किसी हृषीकेश के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा में मौन हूँ?
क्या मेरा यह मौन समर्पण का संकेत है या पलायन का?
निष्कर्ष:
यह श्लोक गीता के संवाद का मनोवैज्ञानिक व आध्यात्मिक मोड़ है।
अब तक अर्जुन बोल रहा था —
अब वह शिष्य के रूप में मौन हो गया है।
यह मौन ही है जो श्रीकृष्ण को प्रेरित करता है कि अब गीता का दिव्य उपदेश आरंभ किया जाए।