मूल श्लोक: 11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥
शब्दार्थ
- देवान् — देवताओं को (प्राकृतिक शक्तियों को, पूज्य शक्तियों को)
- भावयत — संतुष्ट करो, पोषण करो, पूजो
- एनेन — इस (यज्ञ) के द्वारा
- ते देवा — वे देवता
- भावयन्तु वः — तुम्हारा पोषण करें
- परस्परं — एक-दूसरे को
- भावयन्तः — संतुष्ट करते हुए
- श्रेयः — कल्याण
- परम — परम (उच्चतम)
- अवाप्स्यथ — प्राप्त करोगे
तुम्हारे द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञों से देवता प्रसन्न होंगे तथा मनुष्यों और देवताओं के इस संबंध के परिणामस्वरूप सभी को सुख समृद्धि प्राप्त होगी।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण प्रकृति और मनुष्य के परस्पर संबंध की दिव्य व्यवस्था को उजागर करते हैं। उन्होंने पहले बताया कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय उन्होंने “यज्ञ” की व्यवस्था की और अब वे बताते हैं कि इस यज्ञ प्रणाली के द्वारा मनुष्य और देवता एक-दूसरे का हित करते हैं।
“देवता” यहाँ केवल पारंपरिक रूप से पूजे जाने वाले इंद्र, अग्नि आदि नहीं, बल्कि वे प्राकृतिक, ब्रह्मांडीय शक्तियाँ भी हैं जो संसार का संतुलन बनाए रखती हैं — जैसे सूर्य, वायु, वर्षा, अग्नि, पृथ्वी, आदि।
जब मनुष्य यज्ञ करता है — यानी कर्तव्य, सेवा, प्रकृति का आदर और संरक्षण, निःस्वार्थ कर्म — तब वे देवता संतुष्ट होते हैं और उनके माध्यम से मनुष्य को जल, अन्न, वायु, ऊर्जा आदि जीवनोपयोगी साधन प्राप्त होते हैं। इस “परस्पर भाव” से ही धरती पर संतुलन और समृद्धि बनी रहती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक सह-अस्तित्व (co-existence) और संतुलित जीवन की शिक्षा देता है। यह ब्रह्मांड एक परस्पर जुड़ा हुआ तंत्र है। हम प्रकृति को जो देंगे, वही हमें लौटकर मिलेगा। यदि हम केवल उपभोग करें और कुछ न लौटाएँ, तो संतुलन बिगड़ेगा — जिससे दुख, आपदा और विनाश उत्पन्न होंगे।
यज्ञ की भावना — सेवा, त्याग, समर्पण और कर्तव्य की भावना — से ही यह संतुलन बना रह सकता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- देवता — प्रकृति की शक्तियाँ या हमारे जीवन के स्रोत
- भावयत — उन्हें सेवा, सम्मान और संतुलन द्वारा संतुष्ट करना
- यज्ञ — निःस्वार्थ कर्म, सेवा, धर्म पालन
- परस्परं भावयन्तः — जब मनुष्य प्रकृति की रक्षा करता है और प्रकृति बदले में उसका पोषण करती है
- श्रेयः परम — चरम कल्याण, जीवन का उच्चतम लक्ष्य
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जीवन केवल लेने का नहीं, देने और संतुलन बनाए रखने का भी है।
- निःस्वार्थ कर्म और सेवा के माध्यम से ब्रह्मांडीय संतुलन को बनाए रखा जा सकता है।
- “देवता” केवल उपास्य नहीं, वे शक्ति हैं जो हमारे कर्मों के अनुसार फल देती हैं।
- मनुष्य और प्रकृति का संबंध केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक भी है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं केवल लेने में लगा हूँ या देने और संतुलन का भी ध्यान रखता हूँ?
क्या मेरा कर्म प्रकृति और समाज के प्रति यज्ञ भावना से है?
क्या मैं अपने जीवन से संसार को कुछ लौटा रहा हूँ?
क्या मैं ऐसे कर्म करता हूँ जिससे “देवता” — यानी जीवन की शक्तियाँ — संतुष्ट होती हैं?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें संतुलित, सह-अस्तित्वपूर्ण और कर्तव्यपरायण जीवन की ओर प्रेरित करते हैं। जब हम यज्ञ की भावना से — अर्थात सेवा, त्याग, संतुलन और कर्तव्य की भावना से — कर्म करते हैं, तब सृष्टि की शक्तियाँ भी हमें सहयोग और सुरक्षा देती हैं।
यही “श्रेयः परम” — यानी सर्वोच्च कल्याण — की ओर ले जाने वाला मार्ग है।
“प्रकृति को अर्पण, सेवा को धर्म मानो।
कर्म ऐसा करो, जो संतुलन लाए।
देवता संतुष्ट होंगे, जीवन समृद्ध होगा।
यही यज्ञ, यही मोक्ष का मार्ग।”