मूल श्लोक: 24
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥
शब्दार्थ
- उत्सीदेयुः — नष्ट हो जाएँगे, पतन को प्राप्त होंगे
- इमे लोका: — ये सब लोक (मनुष्य, समाज)
- न कुर्यां — यदि मैं न करूँ
- कर्म — कर्तव्य / कार्य
- चेत् — यदि
- अहम् — मैं
- सङ्करस्य — वर्णसंकर / सामाजिक अराजकता / भ्रम
- च कर्ता स्याम् — और मैं उसका कर्ता बन जाऊँ
- उपहन्याम् — नष्ट कर दूँगा / विनाश करूँगा
- इमाः प्रजाः — ये सब प्रजाएँ / प्रजा / संतति / समाज
यदि मैं अपने निर्धारित कर्म को नहीं करता तब ये सभी लोक नष्ट हो जाते और मैं संसार में उत्पन्न होने वाली अराजकता के लिए उत्तरदायी होता और इस प्रकार से मानव जाति की शांति का विनाश करने वाला कहलाता।

विस्तृत भावार्थ
यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि उनके (भगवान के) कर्म न करने से समाज पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा।
- जब श्रेष्ठ व्यक्ति (जैसे स्वयं भगवान) कर्म त्याग देता है, तो समाज के अन्य लोग भी अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं।
- इससे धर्म और व्यवस्था का पतन होता है और समाज में “सङ्कर” यानी मिश्रित प्रवृत्तियाँ, अराजकता और भ्रम उत्पन्न होता है।
- इस तरह जीवन की नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था डगमगा जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ कर्मयोग के महत्व को, विशेषकर नेतृत्व करने वाले व्यक्ति के लिए, अत्यंत आवश्यक बता रहे हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक नेतृत्व और अनुकरण के सिद्धांत को गहराई से स्पष्ट करता है।
- जब भगवान जैसे पूर्णतया सिद्ध व्यक्ति भी कर्म करना नहीं छोड़ते, तो साधारण मनुष्य को तो कभी भी अकर्मण्य नहीं होना चाहिए।
- कर्म न करने की प्रवृत्ति केवल व्यक्तिगत हानि नहीं, बल्कि सामाजिक पतन का कारण भी बनती है।
- धर्म की स्थापना और समाज की रक्षा कर्म से ही संभव है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- उत्सीदेयुः लोका — यदि श्रेष्ठ व्यक्ति कर्म न करें, तो समाज और मूल्य समाप्त हो जाएँ
- सङ्कर — असमंजस, अधर्म, भ्रम, नैतिक पतन
- प्रजा — समाज, संस्कृति, परंपरा, आने वाली पीढ़ियाँ
- कर्त्ता — नेतृत्वकर्ता, जिम्मेदार व्यक्ति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हर जागरूक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह कर्म के माध्यम से समाज को दिशा दे।
- निष्क्रियता (Inaction) सामाजिक और आध्यात्मिक पतन का मार्ग है।
- धर्म का पालन केवल ज्ञान से नहीं, कर्म से होता है।
- श्रेष्ठ लोगों को अपने आदर्श कर्मों से समाज को प्रेरित करना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा हूँ या उनसे बच रहा हूँ?
क्या मेरी निष्क्रियता किसी और के पतन का कारण बन रही है?
क्या मैं अपने कर्मों से समाज को सही दिशा दे रहा हूँ?
क्या मैं इस जीवन को केवल अपने लिए जी रहा हूँ, या दूसरों की भलाई के लिए भी?
निष्कर्ष
यह श्लोक अत्यंत गूढ़ और व्यापक दृष्टिकोण वाला है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि वे स्वयं कर्म न करें तो सामाजिक, नैतिक और धार्मिक व्यवस्था का विनाश हो जाएगा। यह हमें यह सिखाता है कि:
- कर्म केवल आत्मोन्नति का साधन नहीं है,
- यह सामाजिक जिम्मेदारी और संरक्षण का माध्यम भी है।
- श्रेष्ठ व्यक्ति का एक गलत निर्णय, लाखों लोगों की दिशा भटका सकता है।
- इसलिए, अपने कर्मों को धर्म और समाज की भलाई से जोड़कर करना ही सच्चा कर्मयोग है।
नेतृत्व कर्म से होता है, त्याग से नहीं।
कर्तव्य से भागना — समाज को भ्रम में डालना है।