Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 3, Sloke 39

मूल श्लोक: 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥

शब्दार्थ

  • आवृतं — ढका हुआ, छिपा हुआ
  • ज्ञानम् — ज्ञान, विवेक
  • एतेन — इस (अग्नि) द्वारा
  • ज्ञानिनः — ज्ञानी व्यक्ति का
  • नित्यवैरिणा — सदा शत्रु के रूप में
  • कामरूपेण — काम (इच्छा) के रूप में
  • कौन्तेय — हे कर्णपुत्र अर्जुन!
  • दुष्पूरेण — अग्नि से जो बहुत कठिन से बुझने वाली हो
  • अनलेन — अग्नि द्वारा

हे कुन्ती पुत्र! इस प्रकार ज्ञानी पुरुष का ज्ञान भी अतृप्त कामना रूपी शत्रु से आच्छादित रहता है जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक बताता है कि मनुष्य के भीतर विद्यमान ज्ञान (विवेक, सही समझ) को कामरूप अग्नि (वासना और इच्छाओं) द्वारा ढका और छिपा दिया जाता है। यह काम अग्नि ज्ञानी के लिए सदा शत्रु की तरह रहता है, जो ज्ञान को प्रकाशित होने नहीं देता।

यह अग्नि (काम) बहुत ही दुष्पूर्वक (कठिन, बुझने में कठिन) होती है, जिससे ज्ञानी भी इससे पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाता, बल्कि यह सदैव उसकी बुद्धि को बाधित करती रहती है।

इस प्रकार, काम की यह अग्नि ज्ञान के प्रकाश को ढक देती है और मनुष्य को अज्ञान और भ्रम की ओर ले जाती है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक मनुष्य के भीतरी द्वंद्व को दर्शाता है — जहां ज्ञान (विवेक) विद्यमान है, किंतु काम और इच्छाओं की अग्नि उसे ढक लेती है। इस अग्नि को बुझाना अत्यंत कठिन है क्योंकि यह हमारे स्वभाव का हिस्सा बन चुकी है।

यह आग नित्यवैरिणा — हमेशा विरोधी बनी रहती है, जो ज्ञानी के ज्ञान को छिपा कर रखती है। इस कारण से मनुष्य मोक्ष की ओर बढ़ने में विलंब करता है और बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फँसता रहता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • ज्ञानम् — विवेक, सत्य, आत्मा का प्रकाश
  • कामरूप अग्नि — इच्छाओं और वासना की तीव्र ऊर्जा, जो चेतना को जलाकर भटकाती है
  • नित्यवैरिणा — जो लगातार बाधा उत्पन्न करे
  • दुष्पूरेण अनलेन — ऐसी अग्नि जो बुझाना कठिन हो, बार-बार प्रज्वलित हो जाए

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • ज्ञान और विवेक की प्राप्ति के बाद भी इच्छाएं और वासनाएँ हमें बांधती रहती हैं।
  • काम की आग बुझाना आसान नहीं, यह नित्य हमारा शत्रु है।
  • सतत अभ्यास, संयम, और योग के द्वारा इस अग्नि को धीरे-धीरे शांत करना आवश्यक है।
  • केवल ज्ञान होने से ही मोक्ष संभव नहीं, उसे कामरूप अग्नि से मुक्त करना भी अनिवार्य है।
  • यह श्लोक सिखाता है कि मनुष्य को अपने अंदर छुपी इस आग को पहचान कर उससे लड़ना चाहिए।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने अंदर की कामरूप अग्नि को पहचानता हूँ?
क्या मेरी इच्छाएँ और वासनाएँ मेरे ज्ञान को छिपा रही हैं?
क्या मैं इन इच्छाओं के कारण अपनी बुद्धि और विवेक में भ्रमित होता हूँ?
क्या मैं काम की इस अग्नि को बुझाने के लिए प्रयत्नशील हूँ?
क्या मेरी आध्यात्मिक साधना केवल ज्ञान तक सीमित है या काम से भी मुक्त करने पर केंद्रित है?

निष्कर्ष

भगवद्गीता का यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि ज्ञान के साथ-साथ कामरूप अग्नि भी हमारे अंदर विद्यमान है, जो हमें सच का अनुभव करने से रोकती है।

ज्ञानी के लिए यह अग्नि हमेशा शत्रु होती है, और इसे बुझाना अत्यंत कठिन होता है। अतः सतत अभ्यास, संयम, और ईश्वर की शरण में जाकर ही हम इस अग्नि को शांत कर सकते हैं और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं।

यह श्लोक हमें अपने भीतरी संघर्षों को समझने और आत्मसंयम की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

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