मूल श्लोक: 41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥
शब्दार्थ
- तस्मात् — इसलिए
- त्वम् — तुम
- इन्द्रियाणि — इंद्रियाँ (इंद्रियाँ: इंद्रिय-संकेत, जैसे इंद्रिय अर्थात पाँच इंद्रियाँ: दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, रसना, गंध)
- आदौ — पहले, प्रारंभ में
- नियम्य — संयमित करते हुए, नियंत्रित करते हुए
- भरतर्षभ — हे भरतवंश के श्रेष्ठ, अर्थात अर्जुन के लिए संबोधन
- पाप्मानम् — पापों को
- प्रजहि — नष्ट कर दो, दूर कर दो
- हि — निश्चय ही
- एनम् — इस
- ज्ञानविज्ञाननाशनम् — ज्ञान और विज्ञान (दर्शन और अनुभव) का नाश करने वाला
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! प्रारम्भ से ही इन इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर कामना रूपी शत्रु का वध कर डालो जो पाप का मूर्तरूप तथा ज्ञान और आत्मबोध का विनाशक है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान और विज्ञान (दर्शन और गहन अनुभूति) को नष्ट करने वाली पापमय प्रवृत्तियों से बचने का उपाय है इंद्रियों का संयम।
जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में नहीं रखता, वह स्वयं अपने ज्ञान और विवेक को हानि पहुँचाता है। इंद्रियाँ इच्छाओं और मोह की ओर मन को आकर्षित करती हैं, जिससे मन भटकता है और वह सच्चे ज्ञान के प्रकाश से दूर हो जाता है।
इसलिए, अर्जुन को कहा जाता है कि प्रारंभ में ही अपने इंद्रियों को संयमित करके उस पापी प्रवृत्ति को खत्म कर दो, जो मन और बुद्धि दोनों को भ्रमित कर देती है और ज्ञान की शक्ति को कमजोर कर देती है।
इस संयम से ही ज्ञान और विज्ञान की वास्तविक प्राप्ति संभव होती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक आत्मसंयम और इंद्रिय नियंत्रण के महत्व को स्पष्ट करता है। ज्ञान और अनुभव की गहराई को विकृत करने वाली सबसे बड़ी बाधा हैं असंयमित इंद्रियाँ।
जब इंद्रियाँ कामुकता, क्रोध, लोभ आदि की ओर बहकती हैं, तब व्यक्ति का ज्ञान मद्धिम हो जाता है और वह आध्यात्मिक दृष्टि से अंधकार में डूब जाता है।
इसीलिए, अर्जुन को निर्देश दिया गया है कि जीवन में सबसे पहले इंद्रियों पर नियंत्रण पाकर, अपने मन और बुद्धि को शुद्ध बनाओ ताकि सच्चे ज्ञान का अनुभव हो सके।
प्रतीकात्मक अर्थ
- इन्द्रियाणि — मनुष्य की इच्छाशक्ति के केंद्र, जो बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं
- नियम्य — संयमित, नियंत्रण में लाना
- पाप्मानं — अधार्मिक, अनैतिक प्रवृत्तियाँ जो मन को भ्रमित करती हैं
- ज्ञानविज्ञाननाशनम् — ज्ञान और विवेक का नाश करने वाला
- भरतर्षभ — श्रेष्ठ पुरुष, आत्मशक्ति वाले व्यक्ति के लिए संबोधन
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इंद्रियों पर नियंत्रण होना आध्यात्मिक प्रगति का आधार है।
- असंयमित इंद्रियाँ व्यक्ति को पापों और मोह में फंसा देती हैं।
- पापों से मन का प्रकाश मंद पड़ता है और ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती।
- संयमित जीवन ही ज्ञान की रक्षा करता है और आत्मा को सशक्त बनाता है।
- व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रारंभ में ही अपने इंद्रियों पर विजय प्राप्त करे।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करने में सफल हूँ?
क्या मेरी इंद्रियाँ मुझे भ्रमित और बांधती हैं?
क्या मेरी इंद्रिय इच्छा मेरे ज्ञान और विवेक को कमजोर कर रही है?
क्या मैं पापयुक्त प्रवृत्तियों को पहचानकर उनसे दूर रहता हूँ?
क्या मैं अपने जीवन में संयम का अभ्यास करता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें बताता है कि ज्ञान और विवेक की रक्षा के लिए इंद्रियों का नियंत्रण अनिवार्य है। इंद्रिय संयम से ही हम अपने मन और बुद्धि को शुद्ध कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि जो व्यक्ति अपने इंद्रियों को संयमित करता है, वही ज्ञान-विज्ञान का संरक्षक होता है और वह पापों के अंधकार से मुक्त होकर आध्यात्मिक उन्नति करता है।
इसलिए, आध्यात्मिक साधना का पहला और मूल चरण इंद्रिय नियंत्रण ही है, जो हमें सच्चे ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।