मूल श्लोक: 9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥
शब्दार्थ
- यज्ञार्थात् — यज्ञ (ईश्वर-अर्पण, सेवा या पुण्य हेतु) के लिए
- कर्मणः — कर्म (किया गया कार्य)
- अन्यत्र — इसके अतिरिक्त / इसके सिवा
- लोकः अयम् — यह संसार
- कर्मबन्धनः — कर्म के बंधन में पड़ता है
- तत् अर्थम् — उस (यज्ञ) उद्देश्य के लिए
- कर्म समाचर — कर्म करो / कार्य करो
- कौन्तेय — हे कुन्तीपुत्र अर्जुन!
- मुक्तसङ्गः — आसक्ति से मुक्त होकर
परमात्मा के लिए यज्ञ-स्वरूप में कर्मों का निष्पादन करना चाहिए अन्यथा कर्म बंधन का कारण बनेंगे। इसलिए हे कुन्तीपुत्र! भगवान के सुख के लिए और फल की आसक्ति के बिना अपने नियत कर्म करो।

विस्तृत भावार्थ
श्रीकृष्ण यहाँ कर्म का रहस्य स्पष्ट कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह संसार (लोक) तभी बंधन में पड़ता है जब कर्म स्वार्थ, लालच, अहंकार या विषयवासना से प्रेरित होकर किया जाता है। लेकिन जब कर्म “यज्ञ” के भाव से, यानी ईश्वर-अर्पण, धर्म, कर्तव्य, सेवा, या कल्याण की भावना से किया जाता है — तो वह बंधन का कारण नहीं बनता, बल्कि मुक्ति का साधन बन जाता है।
“यज्ञ” का तात्पर्य केवल अग्नि में आहुति नहीं, बल्कि ऐसा कोई भी कर्म है जो निःस्वार्थ भाव से, समर्पणपूर्वक और उच्च उद्देश्य के लिए किया गया हो।
इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं — “हे कौन्तेय! तुम भी अपने कर्म को यज्ञभाव से करो, और उसमें कोई आसक्ति मत रखो।”
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक गीता के कर्मयोग की मूल आत्मा को प्रकट करता है। कर्म से भागना मुक्ति नहीं है, लेकिन स्वार्थरहित, यज्ञभाव से किया गया कर्म ही मोक्ष का मार्ग है।
श्रीकृष्ण कर्म को दो श्रेणियों में बाँटते हैं:
- यज्ञार्थ कर्म – जो ईश्वर को अर्पित है, सेवा, कर्तव्य और धर्म से प्रेरित है।
- अन्यत्र कर्म – जो केवल निजी स्वार्थ, लालच, अहंकार या विषयों की आसक्ति से किया गया हो।
पहला कर्म आत्मा को ऊर्ध्वगामी बनाता है, दूसरा कर्म उसे संसार के बंधनों में उलझा देता है। अतः सही दृष्टिकोण और भावना ही कर्म को बंधन से मुक्ति की ओर मोड़ सकती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- यज्ञार्थ — समर्पण, सेवा, धर्म, समाज-कल्याण
- कर्म — जीवन के सभी कार्य: भौतिक, मानसिक, सामाजिक
- अन्यत्र — यदि कर्म स्वहित के लिए किया जाए
- कर्मबन्धन — जन्म-मरण, दुख-सुख के चक्र में बंधना
- मुक्तसङ्गः — मोह, ममता, अभिमान से रहित स्थिति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- प्रत्येक कर्म को यज्ञ-भाव से करें — अर्थात सेवा, समर्पण और कर्तव्य से।
- कर्म कभी बंधन नहीं बनता, बंधन की जड़ है कर्म के पीछे का स्वार्थ।
- निःस्वार्थ कर्म आत्मा को निर्मल और स्वतंत्र बनाता है।
- संसार में रहते हुए मुक्त होने का मार्ग है — मुक्तसंग होकर यज्ञार्थ कर्म।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरे कर्म किसी उच्च उद्देश्य के लिए हैं या केवल निजी स्वार्थ के लिए?
क्या मैं अपने कार्यों को यज्ञ रूप में देखता हूँ — सेवा और समर्पण के रूप में?
क्या मेरे भीतर कर्मों के फल के प्रति आसक्ति है?
क्या मैं संसार को बंधन समझता हूँ या साधना का अवसर?
क्या मैं कर्म करते समय मुक्तसंग भाव को अपनाता हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण हमें जीवन का गूढ़ मार्ग बताते हैं: कर्म से भागने की नहीं, बल्कि कर्म को यज्ञ में बदलने की आवश्यकता है। जब कर्म निःस्वार्थ होता है, तब वह आत्मा को ऊँचाई पर ले जाता है।
यज्ञार्थ कर्म ही मोक्ष का द्वार है।
इसलिए हर कार्य — चाहे वह घर का हो, कार्यालय का, समाज का, या किसी भी क्षेत्र का — यदि यज्ञ भावना से, कर्तव्य भावना से, और बिना आसक्ति के किया जाए, तो वह बंधन नहीं बनता, वह मुक्ति का साधन बनता है।
“कर्म करो, पर यज्ञ की भावना से।
फल की इच्छा को त्यागो, सेवा को अपनाओ।
तभी कर्म न रहेगा बंधन, बनेगा मुक्ति का साधन।”