मूल श्लोक: 11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥11॥
शब्दार्थ
- ये — जो लोग
- यथा — जिस प्रकार
- मां — मुझे (भगवान को)
- प्रपद्यन्ते — शरणागत होते हैं, जो मुझ पर श्रद्धा और भक्ति करते हैं
- तां तथैव — उसी प्रकार, उसी अनुरूप
- भजामि — मैं भी उनका सम्मान करता हूँ, उनकी पूजा करता हूँ, उनकी आवश्यकताओं के अनुसार उनका पालन-पोषण करता हूँ
- मम — मेरा
- वर्त्मान् — मार्ग, रास्ता
- अनुवर्तन्ते — अनुसरण करते हैं
- मनुष्याः — मनुष्य, सभी जीव
- पार्थ — हे पार्थ (अर्जुन के लिए संबोधन)
- सर्वशः — सम्पूर्ण रूप से, पूरी तरह से
जिस भाव से लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं उसी भाव के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पृथा पुत्र! सभी लोग जाने या अनजाने में मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह दिव्य ज्ञान दे रहे हैं कि मनुष्य भगवान के प्रति विभिन्न प्रकार के भाव और भक्ति के मार्गों से जुड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी योग्यता, प्रवृत्ति, और श्रद्धा होती है। इसी कारण से भगवान उनकी आवश्यकता और आध्यात्मिक स्तर के अनुसार उनके अनुरूप अपनी कृपा और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
भगवान स्वयं कहते हैं कि जो व्यक्ति जिस प्रकार मुझे प्राप्त करता है, उस प्रकार मैं भी उसे स्वीकार करता हूँ और उसकी रक्षा करता हूँ। यह विचार आत्मा और परमात्मा के बीच के रिश्ते को दर्शाता है जिसमें ईश्वर अनंत और सर्वव्यापी होते हुए भी भक्तों की भिन्न-भिन्न जरूरतों और मनःस्थिति के अनुसार अपने रूप और उपस्थिति को बदलते हैं।
यह श्लोक भगवान की कृपा के व्यापक स्वरूप को स्पष्ट करता है कि भगवान सभी मनुष्यों के लिए एक जैसे नहीं होते, बल्कि वे प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप अपने रूप और मार्ग का चयन करते हैं ताकि वे हर किसी को उनके स्तर पर समझ सकें और उनकी सहायता कर सकें।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भक्ति के विभिन्न मार्गों को स्वीकार करता है। भगवान जानते हैं कि सभी मनुष्य समान नहीं होते। उनकी मानसिकता, श्रद्धा और योग्यता विभिन्न होती है। अतः भगवान उन सभी की भक्ति के अनुरूप अपने आप को प्रकट करते हैं।
यह अध्यात्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि ईश्वर हर भक्त के लिए उनके अनुरूप होते हैं। कोई उन्हें ज्ञान रूप में प्राप्त करता है, कोई भक्ति रूप में, कोई कर्मयोग में। भगवान सभी प्रकार के योग मार्गों को स्वीकार करते हैं और भक्त की योग्यता के अनुसार उसका मार्गदर्शन करते हैं।
यह श्लोक यह भी सिखाता है कि भगवान सर्वत्र हैं, सर्वव्यापी हैं, और उनके प्रति भक्ति के अनेक मार्ग हो सकते हैं, सभी समान रूप से योग्य और स्वीकार्य हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
- प्रपद्यन्ते — प्रत्येक भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा, सोच, और परिस्थिति के अनुसार भगवान की शरण लेते हैं।
- तथैव भजामि — भगवान भी उसी प्रकार से उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप उनकी सहायता करते हैं।
- मम वर्त्मानुवर्तन्ते — यह दर्शाता है कि मनुष्य ईश्वर के मार्गों का अनुसरण करते हैं, और इसलिए भगवान भी उनकी प्रवृत्ति के अनुसार मार्ग दिखाते हैं।
- सर्वशः — सभी प्रकार के भेद-भाव से ऊपर उठकर भगवान सभी के लिए उपलब्ध हैं।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- भगवान की भक्ति का कोई एक ही रास्ता नहीं है। हर व्यक्ति को उसकी योग्यता, प्रवृत्ति और श्रद्धा के अनुसार मार्गदर्शन मिलता है।
- ईश्वर सर्वव्यापी हैं और हर भक्त की आवश्यकताओं और गुणों के अनुसार अपना स्वरूप और मार्गदर्शन बदलते हैं।
- हमें यह समझना चाहिए कि हमारी भक्ति अनूठी है और भगवान उसी रूप में हमें स्वीकार करते हैं।
- यह श्लोक भक्ति के समस्त मार्गों को समान महत्व देता है, जैसे ज्ञान योग, भक्तियोग, कर्म योग आदि।
- हमें अपनी योग्यता और भावना के अनुसार भगवान की भक्ति करनी चाहिए और भगवान की कृपा पर भरोसा रखना चाहिए।
गहन दार्शनिक विवेचना
यह श्लोक भगवद्गीता के भक्ति योग का सार है। भगवान श्रीकृष्ण यह बता रहे हैं कि वे हर भक्त के अनुरूप स्वयं को प्रकट करते हैं। कुछ लोग उन्हें गुरु, कुछ देवता, कुछ आत्मा, कुछ शक्ति, कुछ मित्र के रूप में देखते हैं।
भगवान की अनंत शक्ति है कि वे हर रूप में प्रकट हो सकते हैं और भक्त की श्रद्धा के अनुसार वह रूप ग्रहण कर लेते हैं। यह उनका प्रेम और करुणा का रूप है, जो मनुष्य की सीमाओं को देखते हुए उसकी समझ और भावना के अनुरूप होता है।
यह भी बताता है कि कोई भी भक्ति रास्ता छोटा या बड़ा नहीं होता। सभी भक्त भगवान के लिए समान प्रिय हैं, क्योंकि वे सच्चे मन से भगवान को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
भगवान कहते हैं, “मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः” — अर्थात मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं, परन्तु वे विविध मार्गों से आते हैं। इसी कारण मैं भी उनकी विविधताओं का सम्मान करता हूँ।
यह विचार भक्ति में समरसता का परिचायक है, जो सभी धर्मों, मार्गों और योगों के प्रति सहिष्णुता और समावेशन का संदेश देता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं यह स्वीकार करता हूँ कि भगवान की भक्ति के अनेक मार्ग हो सकते हैं?
क्या मैं अपने तरीके से भगवान को याद करता हूँ और उनकी भक्ति करता हूँ?
क्या मैं दूसरों की भक्ति के रूपों का सम्मान करता हूँ, भले वे मेरे से अलग हों?
क्या मैं समझता हूँ कि भगवान सभी के लिए अनंत रूपों में उपस्थित हैं?
क्या मैं अपने मन की श्रद्धा के अनुसार भगवान के साथ संबंध बनाता हूँ?
क्या मैं यह मानता हूँ कि भगवान मेरी योग्यता और भावना के अनुसार मेरी सहायता करते हैं?
निष्कर्ष
यह श्लोक भगवद्गीता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यापक संदेश देता है कि भगवान सभी मनुष्यों के लिए उनके अपने-अपने भाव और श्रद्धा के अनुसार उपस्थित होते हैं।
जो कोई भी भगवान की शरण में आता है, उसकी योग्यता, श्रद्धा और स्वभाव के अनुसार भगवान उसका पालन-पोषण करते हैं और उसे मार्ग दिखाते हैं। इस प्रकार भगवान की कृपा अनंत, सर्वव्यापी, और हर भक्त के लिए व्यक्तिगत होती है।
यह ज्ञान भक्ति योग का मूल आधार है और हमें यह सिखाता है कि हमें अपनी भक्ति में ईमानदार रहना चाहिए और दूसरों की भक्ति के मार्गों का सम्मान करना चाहिए। भगवान से जुड़ने के लिए कोई एकलौता मार्ग नहीं है, बल्कि सभी मार्ग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, और सभी को भगवान स्वीकार करते हैं।
इसलिए हमें अपने हृदय की आवाज सुनकर भगवान की भक्ति करनी चाहिए और विश्वास करना चाहिए कि भगवान हम तक उसी रूप में पहुँचेंगे, जो हमारे लिए सबसे उपयुक्त और लाभकारी है।