Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 4, Sloke 14

मूल श्लोक: 14

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥14॥

शब्दार्थ

  • — नहीं
  • माम् — मुझे
  • कर्माणि — कर्म (कार्य)
  • लिम्पन्ति — लिप्त करते हैं, बाँधते हैं
  • न मे — न मुझे
  • कर्मफल — कर्मों का फल
  • स्पृहा — इच्छा, लालसा
  • इति — इस प्रकार
  • माम् — मुझे
  • यः अभिजानाति — जो जानता है, जो मुझे इस प्रकार पहचानता है
  • कर्मभिः — कर्मों के द्वारा
  • न बध्यते — बंधता नहीं है, मुक्त रहता है

न तो कर्म मुझे दूषित करते हैं और न ही मैं कर्म के फल की कामना करता हूँ जो मेरे इस स्वरूप को जानता है वह कभी कर्मफलों के बंधन में नहीं पड़ता।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक गीता के चौथे अध्याय “ज्ञान-कर्म-संन्यास योग” का महत्वपूर्ण श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कर्म, कर्मफल और आत्मज्ञान के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट कर रहे हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं (ईश्वर) अनेक कार्य करता हूँ, जैसे सृष्टि की रचना, पालन और संहार — परंतु वे कर्म मुझे बांधते नहीं। क्यों? क्योंकि मेरे अंदर कर्मफल की कोई इच्छा नहीं है

जब कोई व्यक्ति इस दिव्य रहस्य को समझ लेता है — कि कर्मों को किए बिना उन पर आसक्ति रखे बिना कार्य करना संभव है — तब वह व्यक्ति भी कर्म करते हुए बंधता नहीं।

यहाँ भगवान एक अत्यंत गूढ़ सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं — “कर्म करते हुए भी अनासक्त रहो, यही मुक्ति का मार्ग है।”

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • इस श्लोक में कर्म और कर्मफल के बीच की आसक्ति को जड़ से समाप्त करने की शिक्षा दी गई है।
  • ईश्वर, जो सृष्टि के कर्ता हैं, स्वयं कर्मफल की इच्छा नहीं रखते, फिर भी समस्त कर्म करते हैं।
  • मनुष्य, यदि ईश्वर की इस स्थिति को समझे और अनुकरण करे — तो वह भी कर्म करते हुए मुक्त हो सकता है
  • यही गीता का मूल तत्व है — “कर्म करो पर फल की इच्छा मत करो।”

प्रतीकात्मक अर्थ

  • कर्म = जीवन के सभी कार्य, चाहे सांसारिक हों या आध्यात्मिक
  • कर्मफल की स्पृहा = हमारे द्वारा कार्यों से मिलने वाले परिणामों की लालसा
  • लिम्पन्ति = कर्मों की जंजीरों में बंध जाना
  • यो अभिजानाति = जो परम ज्ञान से भगवान के भाव को समझता है
  • कर्मभिर्न स बध्यते = वह व्यक्ति भी कर्मों से बंधता नहीं, वह मुक्ति की ओर बढ़ता है

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • कार्य करना हमारा कर्तव्य है, लेकिन उसके फल की इच्छा रखना हमें बांधता है।
  • जो व्यक्ति बिना आसक्ति के कर्म करता है, वह भगवान के समान ही स्वतंत्र और मुक्त होता है।
  • भगवान स्वयं एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं कि महान कार्य भी आसक्ति के बिना किए जा सकते हैं
  • जो मनुष्य इस स्थिति को समझ कर अपनाता है, वह संसार में रहते हुए भी संसार से मुक्त होता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं अपने कार्यों से संबंधित फल की अत्यधिक अपेक्षा रखता हूँ?
  2. क्या मैं अपने कर्म को ईश्वर के प्रति समर्पित भावना से करता हूँ?
  3. क्या मैं यह समझता हूँ कि ईश्वर कर्म करते हैं फिर भी बंधते नहीं, तो मैं क्यों बंधता हूँ?
  4. क्या मैं कर्मफल की इच्छा से स्वयं को दुःखी करता हूँ?
  5. क्या मैं “कर्मण्येवाधिकारस्ते” के सिद्धांत को जीवन में अपना रहा हूँ?

जीवन में उपयोगिता और प्रासंगिकता

इस श्लोक की शिक्षा आज के युग में अत्यंत आवश्यक है। आज मनुष्य प्रत्येक कर्म में लाभ-हानि का गणित खोजता है।
यदि फल की इच्छा पूरी नहीं होती, तो दुःख होता है। परंतु यदि हम यह समझ जाएँ कि:

  • कर्म हमारा अधिकार है, फल नहीं।
  • फल के प्रति निरपेक्ष रहकर कर्म करने से जीवन में शांति और संतुलन आता है।
  • भगवान स्वयं भी अनासक्त रहते हुए कर्म करते हैं, तो हमें भी यही अभ्यास करना चाहिए।

निष्कर्ष

इस श्लोक का सार यह है कि:

  • ईश्वर कर्म करते हैं पर उनसे बंधते नहीं, क्योंकि उनमें फल की कोई कामना नहीं होती।
  • जो व्यक्ति इस सिद्धांत को समझ लेता है — वह भी कर्मों से बंधनमुक्त हो सकता है।
  • ऐसा व्यक्ति कर्मों के बंधन से ऊपर उठकर जीवन-मुक्त हो जाता है।

भगवद्गीता की यह शिक्षा कर्मयोग की पराकाष्ठा है, जहाँ कर्म करते हुए भी व्यक्ति भीतर से मुक्त, शांत और स्थिर बना रहता है।

अंततः, श्रीकृष्ण हमें यही संदेश देते हैं कि —
“अपने जीवन को कर्ममय बनाओ, परंतु फल में आसक्ति न रखकर स्वयं को मुक्त करो।”

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