मूल श्लोक: 16
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥16॥
शब्दार्थ (शब्दों का अर्थ)
- किम् कर्म — क्या है कर्म?
- किम् अ-कर्म — क्या है अ-कर्म (जो कर्म नहीं है)?
- कवयः अपि — विद्वानजन भी
- अत्र — इस विषय में
- मोहिताः — भ्रमित हो जाते हैं
- तत् ते — वह मैं तुझे
- कर्म प्रवक्ष्यामि — कर्म का उपदेश देता हूँ, कर्म की व्याख्या करता हूँ
- यत् ज्ञात्वा — जिसे जानकर
- मोक्ष्यसे अशुभात् — तू पापों से मुक्त हो जाएगा
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसका निर्धारण करने में बद्धिमान लोग भी विचलित हो जाते हैं अब मैं तुम्हें कर्म के रहस्य से अवगत कराऊँगा जिसे जानकर तुम सारे लौकिक बंधनों से मुक्त हो सकोगे।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में एक गूढ़ तथ्य को प्रकट कर रहे हैं। वे कहते हैं कि कर्म का स्वरूप, और उससे जुड़ा ज्ञान, इतना सूक्ष्म है कि ज्ञानीजन (कवि, मुनि, ऋषि) तक भ्रमित हो जाते हैं।
लोग बाह्य रूप से किए गए कार्यों को ही कर्म समझते हैं, परंतु भगवान इस भ्रांति को दूर करते हुए कहते हैं कि कर्म केवल बाह्य गतिविधि नहीं है — उसका आंतरिक भाव, नियत उद्देश्य और आसक्ति की स्थिति ही वास्तविक रूप से यह तय करती है कि वह कर्म है, अकर्म है, या विकर्म है।
गीता के अनुसार कर्म को समझने के तीन स्तर हैं:
- कर्म (Karma) — धर्मानुसार किया गया कर्म (कर्तव्यकर्म)।
- अकर्म (Akarma) — कर्म न करना नहीं, बल्कि ऐसा कर्म जो बंधन उत्पन्न न करे।
- विकर्म (Vikarma) — अधर्मयुक्त कर्म, जिससे बंधन और पाप उत्पन्न होते हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्म के रहस्यपूर्ण स्वरूप को उद्घाटित करता है।
भगवान श्रीकृष्ण इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि “कर्म क्या है” और “कर्म न करना क्या है” — यह ऐसा विषय है जो श्रेष्ठ ज्ञानीजनों को भी भ्रमित कर देता है।
यहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अब ऐसा ज्ञान दूँगा जिससे तुम समझ सकोगे कि:
- कौन सा कर्म वास्तव में मुक्ति की ओर ले जाता है?
- कौन सा कर्म दिखता तो अच्छा है लेकिन भीतर से बंधनकारी है?
- कौन सा कर्म करते हुए भी मनुष्य बंधता नहीं?
यह ज्ञान और विवेक के बिना असंभव है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- कर्म — शास्त्रानुकूल कर्तव्य जैसे यज्ञ, दान, सेवा
- अकर्म — ऐसा कर्म जिसमें कर्तापन का अभाव हो
- विकर्म — ऐसा कार्य जो लोभ, मोह, कामना, क्रोध से उत्पन्न हो
- कवयः — वो ज्ञानीजन जो जीवन और ब्रह्म के रहस्यों पर चिंतन करते हैं
- मोहिताः — भ्रमित, कारण यह कि कर्म केवल बाह्य नहीं बल्कि आंतरिक चेतना से जुड़ा है
- अशुभात् मोक्ष्यसे — यह ज्ञान मनुष्य को पापों और बंधनों से मुक्त करता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हर कार्य कर्म नहीं होता — यदि वह अज्ञान, लोभ या मोह से प्रेरित है, तो वह कर्म न होकर विकर्म है।
- कर्म वही है जो धर्म और आत्मज्ञान से प्रेरित हो।
- ज्ञान के बिना किया गया कर्म बंधन उत्पन्न करता है।
- कर्म में कर्तापन का भाव छोड़ना आवश्यक है।
- भगवान का उपदेश यह है कि केवल कर्म करने से नहीं, कर्म का रहस्य जानने से मोक्ष प्राप्त होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं जो कार्य करता हूँ, वह शुद्ध भाव से किया गया कर्म है या आसक्ति से प्रेरित विकर्म?
क्या मैं हर कर्म के पीछे के उद्देश्यों की जाँच करता हूँ?
क्या मैं केवल बाह्य रूप से कार्यों को “पुण्य” मानता हूँ या उसकी भावना को भी देखता हूँ?
क्या मैं अपने कर्मों के परिणामों में फँसता हूँ या ईश्वरार्पण की भावना रखता हूँ?
क्या मैंने कर्म और अकर्म के गूढ़ अंतर को समझने का प्रयास किया है?
जीवन में उपयोगिता
आज का मनुष्य हर समय कर्म में व्यस्त है — नौकरी, व्यापार, परिवार, धर्मकर्म — लेकिन क्या वह जानता है कि उसका कर्म उसे बंधन की ओर ले जा रहा है या मुक्ति की ओर?
इस श्लोक की शिक्षा हमें बताती है कि मात्र कर्म करना पर्याप्त नहीं है,
बल्कि कर्म को समझना और कर्म के पीछे की भावना का शुद्ध होना अत्यंत आवश्यक है।
आज के युग में जब लोग “परिणाम” को ही सफलता मानते हैं, तब यह श्लोक हमें सिखाता है:
- कर्म करना तो ज़रूरी है,
- परन्तु क्यों कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं और किस भाव से कर रहे हैं, यह भी जानना चाहिए।
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कर्म के गूढ़ तत्व को उजागर करते हैं और कहते हैं कि:
“कर्म केवल बाह्य क्रिया नहीं है, बल्कि यह एक अंतर्ज्ञानात्मक अवस्था है।”
जो व्यक्ति इस रहस्य को जान लेता है, वह:
- कर्म करता हुआ भी बंधता नहीं,
- आत्मज्ञानी हो जाता है,
- और शुभ-अशुभ से ऊपर उठकर मुक्त हो जाता है।
यह ज्ञान आत्मशुद्धि, विवेक और अंतःकरण की सजगता द्वारा प्राप्त होता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं — हे अर्जुन! मैं तुझे अब वह ज्ञान दूँगा जिससे तू सभी कर्मों के भ्रम से मुक्त होकर परम मुक्ति को प्राप्त करेगा।