मूल श्लोक: 29
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥29॥
शब्दार्थ
- अपाने — अपान वायु में (जो नीचे की ओर जाने वाली श्वास है, मलत्याग व अन्य कार्यों से जुड़ी है)
- जुह्वति — आहुति देते हैं, समर्पित करते हैं
- प्राणम् — प्राण वायु को (जो ऊपर की ओर चलती है, जैसे श्वास लेना आदि)
- प्राणे — प्राण वायु में
- अपानम् — अपान वायु को
- तथा अपरे — और कुछ अन्य साधक
- प्राणापानगती रुद्ध्वा — प्राण और अपान की गति को रोककर, संतुलित करके
- प्राणायामपरायणाः — प्राणायाम में निष्ठावान साधक, जो प्राणायाम को ही सर्वोपरि मानते हैं
कुछ अन्य लोग भी हैं जो बाहर छोड़े जाने वाली श्वास को अन्दर भरी जाने वाली श्वास में जबकि अन्य लोग अन्दर भरी जाने वाली श्वास को बाहरी श्वास में रोककर यज्ञ के रूप में अर्पित करते हैं। कुछ प्राणायाम की कठिन क्रियाओं द्वारा भीतरी और बाहरी श्वासों को रोककर प्राणवायु को नियंत्रित कर उसमें पूरी तरह से तल्लीन हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में प्राणायाम की महत्ता और उसकी गूढ़ आध्यात्मिक प्रक्रिया को स्पष्ट कर रहे हैं। यहाँ दो प्रकार के योगियों की बात की गई है:
- वे जो प्राण वायु को अपान में अर्पित करते हैं
- वे जो अपान वायु को प्राण में समर्पित करते हैं
तथा एक तीसरी कोटि के साधक भी हैं जो दोनों की गतियों को रोककर प्राणायाम की साधना में लीन रहते हैं।
यह श्लोक दर्शाता है कि श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करके भी साधक आत्म-साक्षात्कार की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
प्राण और अपान का यज्ञ
प्राण और अपान शरीर की सबसे मूलभूत जीवनशक्तियाँ हैं। जब कोई योगी श्वास (प्राण) को बाहर निकालने की क्रिया (अपान) में समर्पित करता है या अपान को प्राण में, तो वह शरीर की आंतरिक ऊर्जा को संतुलित करता है।
यह केवल शारीरिक नियंत्रण नहीं, बल्कि आंतरिक यज्ञ है — जहाँ जीवनशक्ति को ही आहुति रूप में संयम और ध्यान की अग्नि में समर्पित किया जाता है।
प्राणायाम में निष्ठा
प्राणायामपरायणाः का तात्पर्य उन साधकों से है जिन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य ही प्राणायाम और उसके माध्यम से आत्मबोध को बना लिया है।
वे केवल सांस को नियंत्रित नहीं करते, बल्कि उस नियंत्रण के माध्यम से मन, इन्द्रियाँ और चित्त को भी स्थिर कर देते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
१. श्वास की गति और आत्मा का बोध
प्राण और अपान की गति जीवन की गति है। जब यह गति नियंत्रित होती है, तब मन शांत होता है और आत्मा के अनुभव की भूमि तैयार होती है।
योगशास्त्रों के अनुसार, जहाँ श्वास स्थिर होती है, वहीं मन स्थिर होता है और वहीं से आत्म-साक्षात्कार की यात्रा आरंभ होती है।
२. यज्ञ का आध्यात्मिक रूपांतरण
इस श्लोक में यज्ञ की कोई बाह्य विधि नहीं बताई गई है। यहाँ यज्ञ वह प्रक्रिया है जहाँ साधक अपने जीवन की साँसों को ही आहुति बना देता है।
यह सूक्ष्मतम यज्ञ है — न कोई अग्नि, न कोई सामग्री, केवल प्राण और चेतना।
३. प्रत्याहार और धारणा का आधार
प्राण और अपान की गति को संतुलित करना प्रत्याहार और धारणा का प्रवेशद्वार है। यह साधना अंतर्मुखी होने का पहला चरण है, जहाँ साधक अपनी सारी ऊर्जा भीतर की ओर मोड़ता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
प्रतीक | अर्थ |
---|---|
प्राण | जीवनी शक्ति, श्वास लेने की क्रिया |
अपान | त्याग करने वाली शक्ति, श्वास छोड़ने की क्रिया |
जुह्वति | समर्पण करना, आहुति देना |
रुद्ध्वा | रोकना, नियंत्रित करना |
प्राणायाम | श्वास का योग द्वारा नियंत्रण |
परायणाः | निष्ठा से लगे हुए साधक |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- स्वासों का नियमन ही जीवन का नियमन है।
- प्रत्येक श्वास भी यज्ञ हो सकता है जब वह विवेक और संयम के साथ लिया जाए।
- प्राणायाम केवल स्वास्थ्य का अभ्यास नहीं, बल्कि आत्मिक जागरण का एक साधन है।
- प्राण और अपान के माध्यम से मन और चित्त को नियंत्रित किया जा सकता है।
- जीवन की हर श्वास का उद्देश्य ब्रह्म के साथ योग बन सकता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपनी सांसों के प्रति सजग हूँ?
क्या मैं केवल सांस लेकर जीवन जीता हूँ, या उसका उपयोग आत्मसाधना में करता हूँ?
क्या मैं श्वास के माध्यम से मन की चंचलता को रोकता हूँ?
क्या मैं प्राणायाम को अपने जीवन का अंग बना सका हूँ?
क्या मेरी श्वासें भी ईश्वर के लिए समर्पित हैं?
निष्कर्ष
यह श्लोक अत्यंत सूक्ष्म और रहस्यमय है, क्योंकि इसमें जीवन की आधारभूत शक्ति — प्राणवायु — को ही यज्ञ का साधन बताया गया है।
जब साधक श्वास-प्रश्वास की गतियों को ज्ञानपूर्वक नियंत्रित करता है, तब वह स्वयं की सीमाओं से ऊपर उठकर अंतर्जगत में प्रवेश करता है।
यह यज्ञ किसी बाह्य अग्नि में नहीं, आत्मा की अग्नि में होता है — जहाँ जीवन की सारी गति ईश्वरार्पण बन जाती है।
प्राणायामपरायण साधक वही है जो प्रत्येक श्वास को ईश्वर के चरणों में अर्पित करता है और इस निरंतर अर्पण के माध्यम से अद्वैत की अनुभूति करता है।
इस प्रकार, यह श्लोक केवल एक योगिक क्रिया नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ एक जीव की समर्पण-यात्रा है — श्वास दर श्वास।