Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 4, Sloke 31

मूल श्लोक: 31

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥31॥

शब्दार्थ

  • यज्ञ — वेदों में निर्दिष्ट वह पवित्र कर्म या अनुष्ठान जिसमें अग्नि, जल आदि में आहुति दी जाती है
  • शिष्टामृतभुजः — यज्ञ से उत्पन्न अमृत (शिष्ट-अमृत) का भोग करने वाले
  • यान्ति — जाते हैं, प्रस्थान करते हैं
  • ब्रह्म सनातनम् — सनातन ब्रह्म या परमात्मा के पास
  • — नहीं
  • अयम् — यह
  • लोकः — संसार, जीवों का संसार
  • अस्ति — है
  • अयज्ञस्य — यज्ञ के बिना
  • कुतः — कहाँ से
  • अन्यः — अन्य कोई
  • कुरु सत्तम — हे श्रेष्ठ कुरु (अर्जुन के लिए संबोधन)

 इन यज्ञों का रहस्य जानने वाले और इनका अनुष्ठान करने वाले, इन यज्ञों के अमृततुल्य अवशिष्टांश का आस्वादन कर परम सत्य की ओर बढ़ते हैं। हे कुरुश्रेष्ठ! जो लोग यज्ञ नहीं करते, वे न तो इस संसार में और न ही अगले जन्म में सुखी रह सकते हैं।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक अर्जुन को स्पष्ट करता है कि सभी जीवों के लिए अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य सनातन ब्रह्म है, जो केवल यज्ञ द्वारा प्राप्त होता है।

यहां यज्ञ केवल एक अनुष्ठानिक क्रिया नहीं, बल्कि समस्त जीवों के कर्मों का व्यापक अर्थ है — अर्थात्, कर्म जिसमें ईश्वर की पूजा, भक्ति, और समर्पण निहित हो।

जो इस यज्ञ से उत्पन्न शिष्ट-अमृत (यज्ञ की शेषावशिष्ट जो अमृत तुल्य है) का सेवन करते हैं, अर्थात् जो यज्ञ के फलस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति करते हैं, वे संसार के चक्र से मुक्त होकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि यज्ञ के बिना न तो यह संसार स्थिर है, न कोई अन्य रास्ता है जो मोक्ष का द्वार खोल सके। यज्ञ कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग के माध्यम से किया गया कर्म है, जो आत्मा को शुद्ध करता है और उसे परमपद तक ले जाता है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

यज्ञ का सर्वव्यापी स्वरूप

यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना ही नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक कर्म में ईश्वर के प्रति समर्पण करना है।

यह श्लोक यह सिखाता है कि जीवन में जो कर्म ईश्वर के नाम, भक्ति, सेवा और ज्ञान के साथ जुड़े हैं, वे ही यज्ञ कहलाते हैं।

इस यज्ञ से उत्पन्न फल शुद्ध और अमृततुल्य होता है, जिसे ग्रहण करने वाले जीव सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

शिष्टामृतभुजः का अर्थ

शिष्टामृत वह अमृत है जो यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न होता है, अर्थात् जो फल शुद्ध और पवित्र होता है।

यह अमृत केवल भौतिक अर्थ में अमृत नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अमृत है — जो जीवात्मा को जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करता है।

जो व्यक्ति यज्ञ का फल भोगता है, वह शिष्टामृतभुजः कहलाता है — अर्थात् उसने अपने कर्मों को यज्ञ रूप दिया है और उसका परिणाम पवित्र और अमृतमय है।

सनातन ब्रह्म को प्राप्ति

सनातन ब्रह्म वह अविनाशी परम सत्य है, जो नित्य और अखण्ड है।

यह केवल बुद्धि से परे है, अनुभूति और ज्ञान का परम स्रोत है।

जो यज्ञ के द्वारा अपने कर्मों को शुद्ध करते हैं, वे इस सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, जो सभी दुखों और जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त करता है।

यज्ञ के बिना मोक्ष संभव नहीं

यह श्लोक बहुत ही स्पष्ट रूप से कहता है कि बिना यज्ञ के इस संसार में, न तो कोई स्थायी लक्ष्य है और न ही कोई अन्य मार्ग।

यहाँ ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य’ कहकर स्पष्ट किया गया है कि यज्ञ की साधना के बिना न तो यह लोक टिक सकता है और न अन्य कोई स्थान, अर्थ या स्थिति।

संसार में सबकुछ यज्ञ के माध्यम से संचालित होता है — चाहे वह प्रकृति के नियम हों, चाहे समाज के कर्मकांड।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • संसार की स्थिरता यज्ञ में है
    संपूर्ण सृष्टि यज्ञ से ही संचालित है। प्रकृति में जो परिवर्तन और विकास होता है, वह सब यज्ञ की क्रिया का परिणाम है।
  • मोक्ष का मार्ग यज्ञ के माध्यम से
    संसार के कर्म-बद्ध चक्र से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है यज्ञ के द्वारा अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना।
  • अमृत और शुद्धता
    जो यज्ञ से उत्पन्न फल ग्रहण करता है, वह मन, बुद्धि और कर्म से शुद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए जीवन का अंत नहीं, केवल अनंत सुख की प्राप्ति होती है।

प्रतीकात्मक अर्थ

प्रतीकअर्थ
यज्ञशिष्टामृतभुजःयज्ञ से प्राप्त अमृत का भोग करने वाले साधक, जो कर्मों में ईश्वर की भक्ति रखते हैं।
ब्रह्म सनातनम्वह परम सत्य, जो सनातन और अविनाशी है।
नायं लोकःइस संसार में ऐसा कोई मार्ग नहीं।
अयज्ञस्यबिना यज्ञ के, अर्थात् बिना समर्पित कर्मों के।
अन्यःकोई दूसरा, कोई वैकल्पिक मार्ग।

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • जीवन में सभी कर्मों का मूल ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति होनी चाहिए।
  • यज्ञ से उत्पन्न कर्म शुद्ध होते हैं और जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ते हैं।
  • परम सत्य की प्राप्ति के लिए यज्ञ आवश्यक है, अन्यथा संसार में स्थिरता नहीं।
  • साधना और कर्म योग के द्वारा ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकता है।
  • यज्ञ के फलस्वरूप प्राप्त अमृत आत्मा को नश्वर से अमर तक ले जाता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मेरे कर्म यज्ञ के समान हैं?
क्या मैं अपने कर्मों को ईश्वर के लिए समर्पित करता हूँ?
क्या मेरे कर्म शुद्ध और निरपेक्ष हैं?
क्या मुझे समझ में आता है कि बिना यज्ञ के कोई स्थायी लक्ष्य नहीं?
क्या मैं अपने जीवन में यज्ञ की महत्ता को स्वीकार करता हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें यह गूढ़ संदेश देता है कि संसार का संचालन और मोक्ष का मार्ग केवल यज्ञ के द्वारा ही संभव है।

जो लोग यज्ञ के माध्यम से अपने कर्मों को शुद्ध करते हैं और उसके फलस्वरूप उत्पन्न अमृत का सेवन करते हैं, वे सनातन ब्रह्म के निकट पहुंचते हैं।

यह अमृत केवल शारीरिक या सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और अनन्त है।

इस प्रकार, यज्ञ न केवल कर्मों का एक पवित्र रूप है, बल्कि वह अंतिम सत्य और मुक्तिदाता है, जिसके बिना संसार न तो स्थिर रह सकता है, न ही कोई जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यहाँ न केवल यज्ञ की महत्ता बताई है, बल्कि जीवन के अंतिम लक्ष्य — सनातन ब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग भी बताया है।

अतः यह श्लोक साधक के लिए एक प्रेरणा है कि वह अपने कर्मों को यज्ञ रूपी समर्पण से करें और उस शिष्ट अमृत को ग्रहण करें जो उसे अनादि ब्रह्म के निकट ले जाए।

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