मूल श्लोक: 6
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
शब्दार्थ
- अजः अपि — जन्मा नहीं हुआ, अर्थात् अजन्मा
- सन्न — होते हुए, रहते हुए
- अव्ययात्मा — अक्षय, नित्य और अविनाशी आत्मा
- भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् — सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी
- प्रकृति स्वाम् अधिष्ठाय — प्रकृति के स्वामी के रूप में अधिष्ठान (आधार) लेकर
- सम्भवामि — उत्पन्न होता हूँ, प्रकट होता हूँ
- आत्ममायया — अपनी माया (मोह, प्रपंच) से
यद्यपि मैं अजन्मा और समस्त जीवों का स्वामी और अविनाशी हूँ तथापि मैं इस संसार में अपनी दिव्य शक्ति योगमाया द्वारा प्रकट होता हूँ।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अपने अस्तित्व का रहस्य प्रकट कर रहे हैं। वे कहते हैं कि वे अजन्मा हैं — अर्थात उनका कोई जन्म नहीं हुआ, वे नित्य, अविनाशी और अक्षय हैं।
फिर भी, वे इस सृष्टि के सभी जीवों के ईश्वर हैं, सभी जीवों के आधार और स्वामी हैं। उनकी सत्ता सर्वोपरि है।
प्रकृति (प्रकृति यहाँ स्त्रीलिंग में ली गई है, जो सृष्टि, पदार्थ, या प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है) को वे अपना आधार बनाकर अधिष्ठान लेकर — अर्थात् प्रकृति के माध्यम से सृष्टि में — वे माया से उत्पन्न होकर इस भौतिक स्वरूप में प्रकट होते हैं।
माया वह शक्ति है जो ईश्वर को अव्यक्त से व्यक्त में लाती है, जो शाश्वत को अस्थायी रूप में प्रकट करती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की गहरी शिक्षाओं को उद्घाटित करता है। यहाँ श्रीकृष्ण स्वयं को अजन्मा, अविनाशी आत्मा बताते हुए कह रहे हैं कि उनकी सत्ता नित्य है, जो जन्म-मरण के चक्र से परे है।
फिर भी, उन्होंने इस माया (प्रकृति) के माध्यम से संसार में प्रकट होकर जीवों के साथ कर्म और संसार के नियमों का पालन किया। यह अवतार का रहस्य है — जहाँ ईश्वर अपनी दिव्यता में रहते हुए भी संसार में कर्म-योग निभाते हैं।
यह हमें आत्मा और परमात्मा के अंतर और संबंध को समझाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- अजोऽपि सन्न — परमात्मा जो जन्मता नहीं, नाश नहीं होता
- अव्ययात्मा — अमर और अक्षय चेतना
- भूतानामीश्वरः — सभी प्राणियों के स्वामी और अधिपति
- प्रकृति स्वाम अधिष्ठाय — माया के माध्यम से प्रकृति को आधार बनाकर
- सम्भवामि आत्ममायया — माया से स्वयं को भौतिक रूप में प्रकट करना
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- परमात्मा सदा नित्य और अपरिवर्तनीय है, लेकिन वह माया के माध्यम से सृष्टि में कर्मभूमि पर आता है।
- यह हमें सिखाता है कि शरीर और संसार अस्थायी हैं, आत्मा नित्य है।
- ईश्वर का अवतार माया की लीला है — ताकि जीवों को ज्ञान, धर्म और मोक्ष का उपदेश दिया जा सके।
- इस सत्य को समझकर हम माया से प्रभावित होने के बजाय अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करें।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने अस्तित्व के वास्तविक स्वरूप (अजर-अमर आत्मा) को समझने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं भौतिक शरीर को ही अपना सम्पूर्ण स्वरूप मान लेता हूँ?
क्या मैं यह जानता हूँ कि ईश्वर माया के माध्यम से संसार में अवतरित होता है?
क्या मैं माया की सत्ता को समझकर उससे मुक्त होने का प्रयास करता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक परमात्मा के अजन्मा, अविनाशी, नित्य स्वरूप की दिव्यता को प्रकट करता है, जो माया के माध्यम से संसार में प्रकट होकर जीवों के कल्याण का कार्य करता है।
यह हमें याद दिलाता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप भी नित्य और अविनाशी है, और हमें माया के भ्रम से मुक्त होकर उस सत्य को जानने का प्रयास करना चाहिए।
“परमात्मा अजन्मा है, पर उसकी लीला माया से संसार में प्रकट होती है — हमें भी अपने भीतर की नित्य चेतना को पहचानना है।”