मूल श्लोक – 11
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥
शब्दार्थ (शब्दों का संक्षिप्त अर्थ)
- कायेन — शरीर द्वारा
- मनसा — मन द्वारा
- बुद्धया — बुद्धि द्वारा
- केवलैः इन्द्रियैः — शुद्ध (संयमित) इन्द्रियों द्वारा
- अपि — भी
- योगिनः — योगीजन
- कर्म कुर्वन्ति — कर्म करते हैं
- सङ्गं त्यक्त्वा — आसक्ति को त्याग कर
- आत्मशुद्धये — आत्मा की शुद्धि के लिए, अंतःकरण की निर्मलता के लिए
योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योगी के कर्म करने के तरीके का वर्णन करते हैं। योगीजन संसार में कर्म करते हैं, परन्तु उस कर्म में उनकी कोई आसक्ति नहीं होती। वे कर्म को न तो फल के लिए करते हैं, न ही किसी सांसारिक लाभ की इच्छा से। वे केवल अंतःकरण की शुद्धि, आत्मविकास और आध्यात्मिक उन्नति के लिए कर्म करते हैं।
योगी का कर्म उसके मन, शरीर, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा होता है, पर वह स्वयं को कर्ता नहीं मानता। वह जानता है कि ये सब प्रकृति के तत्व हैं और वह आत्मा इन सबसे परे है। इसलिए उसके लिए कर्म एक साधना बन जाता है, बंधन नहीं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक कर्मयोग की उच्चतम स्थिति को दर्शाता है — कर्म करते हुए भी निष्काम भाव।
- “सङ्गं त्यक्त्वा” — आसक्ति का परित्याग, अर्थात फल की चिंता और अहंकार से मुक्त भाव।
- “आत्मशुद्धये” — कर्म का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि है, न कि भौतिक सफलता।
- यह दृष्टिकोण गीता के निष्काम कर्म सिद्धांत का सार है: कर्म करते हुए भी कर्म में न फँसना।
- यह शुद्धता केवल मानसिक नहीं, बल्कि संपूर्ण चेतना की निर्मलता है — जिससे आत्मज्ञान सुलभ होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- कायेन, मनसा, बुद्धया — संपूर्ण व्यक्तित्व: शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक कर्म।
- केवलैः इन्द्रियैः — संयमित, शुद्ध और नियंत्रण में रहने वाली इन्द्रियाँ।
- योगिनः — वे जो आत्मा से जुड़ने की साधना में रत हैं।
- कर्म कुर्वन्ति — वे संसार के सभी कार्य करते हैं, किन्तु “कर्तापन” का बोध नहीं रखते।
- सङ्गं त्यक्त्वा — न फल की लालसा, न कर्म में मोह।
- आत्मशुद्धये — कर्म को आत्म-निर्माण और चेतना की शुद्धि के साधन के रूप में उपयोग करना।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म को पूजा की तरह करना चाहिए, फल की आशा से नहीं।
– निष्काम भाव से किया गया कर्म आत्मा को पवित्र करता है। - शरीर, मन, और बुद्धि का समन्वय — योग का लक्षण है।
– जब तीनों एकाग्र होते हैं, तब कर्म में कोई द्वंद्व नहीं रहता। - इन्द्रियों पर नियंत्रण ही योग की शुरुआत है।
– ‘केवलैः इन्द्रियैः’ — संयम ही योग की नींव है। - सच्चा योगी कभी भी कर्म से भागता नहीं, बल्कि कर्म को आत्मसाधना बनाता है।
– सांसारिक जीवन ही साधना बन सकता है, यदि दृष्टिकोण निर्मल हो। - संलग्नता ही बंधन है, त्याग ही मुक्ति का द्वार।
– संकल्प केवल शुद्धता की होनी चाहिए, न कि फल की।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्मों को केवल भौतिक लाभ के लिए करता हूँ?
क्या मैं अपने कार्यों में ‘कर्तापन’ का भाव रखता हूँ?
क्या मेरी इन्द्रियाँ संयमित हैं? क्या मैं इन्द्रिय-विषयों में नहीं डूब जाता?
क्या मैं शरीर, मन और बुद्धि को योग की दिशा में नियंत्रित कर पा रहा हूँ?
क्या मैं कर्म को आत्मिक शुद्धि के साधन के रूप में देखता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें कर्म करने की उत्तम रीति सिखाता है। केवल वह योगी है जो शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से कर्म करता है, परन्तु उसमें आसक्त नहीं होता। उसका कर्म बाह्य होता है, पर उद्देश्य आंतरिक शुद्धता होता है। यही सच्चा कर्मयोग है — जिसमें संसार में रहकर भी आत्मा की उन्नति संभव है।
श्रीमद्भगवद्गीता का यह सन्देश आज के युग में भी अत्यंत प्रासंगिक है। आज जब लोग कर्म को केवल लाभ का साधन मानते हैं, तब यह श्लोक याद दिलाता है — “कर्म को साधना बनाओ, साधन नहीं।”