मूल श्लोक – 14
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥
शब्दार्थ:
- न — नहीं
- कर्तृत्वम् — कर्तापन, कर्म का कर्ता होने की भावना
- कर्माणि — कर्म, कार्य
- लोकस्य — प्राणियों का, संसार का
- सृजति — रचता है, उत्पन्न करता है
- प्रभुः — परमात्मा, ईश्वर
- न — नहीं
- कर्मफलसंयोगम् — कर्मों के फल से योग, फल की प्राप्ति
- स्वभावः — स्वाभाविक गुण, प्रकृति
- तु — किंतु
- प्रवर्तते — चलाती है, गतिशील करती है
न तो कर्त्तापन का बोध और न ही कर्मों का सृजन भगवान द्वारा होता है तथा न ही वे कर्मों के फल का सृजन करते हैं। यह सब प्रकृति के गुणों से सृजित होते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्म, कर्तृत्व और ईश्वर के संबंध को स्पष्ट करते हैं। मनुष्य अकसर सोचता है कि ईश्वर ने उसे कर्मों में उलझा रखा है या उसके कर्मों के फल दे रहा है। परंतु श्रीकृष्ण यहाँ यह भ्रांति दूर करते हैं।
1. ईश्वर कर्ता नहीं है:
ईश्वर संसार में होने वाले कार्यों के लिए प्रत्यक्ष रूप से कर्ता नहीं है। वह केवल साक्षी है, उपद्रष्टा और अनुमन्ता है। मनुष्य स्वयं अपने स्वभाव, वासनाओं और गुणों के अनुसार कर्म करता है।
2. न कर्मों की रचना करता है, न फल का बंधन:
ईश्वर न तो हमें कर्मों के लिए विवश करता है, न ही वह फल बाँधता है। कर्म करना और फल की प्राप्ति, ये सब जीव की प्रकृति, मन की स्थिति और मानसिक संस्कारों पर आधारित होते हैं।
3. स्वभाव प्रवृत्ति का कारण है:
प्रकृति के तीन गुण — सत्त्व, रजस और तमस — जीव के भीतर स्वभाव रूप में कार्य करते हैं। यही गुण व्यक्ति को विशिष्ट कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं, और वही कर्म फल उत्पन्न करते हैं।
4. ईश्वर की भूमिका:
भगवान सृष्टि के नियमों को स्थिर करते हैं, परंतु व्यक्ति की इच्छाएं, आसक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ ही उसे बंधन या मुक्ति की ओर ले जाती हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
- अद्वैत और कर्म सिद्धांत का समन्वय:
यह श्लोक अद्वैत वेदांत की भावना को दर्शाता है – कि आत्मा शुद्ध है, और उसमें कोई कर्तृत्व नहीं। परंतु जब आत्मा स्वयं को देह और मन से जोड़ लेती है, तभी वह “मैं करता हूँ” की भावना में आ जाती है। - कर्मबन्धन के मूल में अज्ञान:
ईश्वर तो केवल निष्कलंक सत्ता है, वह किसी को न बांधता है, न मुक्त करता है। परंतु अज्ञानवश जीव अपने कर्मों का कर्ता मान बैठता है और परिणामस्वरूप फल में बंधता है। - प्रकृति का कार्य:
यहाँ “स्वभाव” का तात्पर्य प्रकृति से है – जो त्रिगुणात्मिका है। जीव जब प्रकृति से तादात्म्य करता है, तब ही कर्म प्रवृत्तियाँ और फल उसके जीवन में उत्पन्न होते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- प्रभुः — ईश्वर, जो सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और निष्क्रिय साक्षी है
- कर्तृत्वम् — “मैं करता हूँ” की अहंकारजन्य भावना
- कर्मफलसंयोगम् — फल की प्राप्ति में बंधने की प्रवृत्ति
- स्वभाव — जन्मजात प्रवृत्तियाँ, संस्कार और गुण
- प्रवर्तते — जीवन में घटित होने वाली क्रियाओं का संचालन
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- कर्मों में ईश्वर को दोष न दें — हमारी प्रवृत्तियाँ ही हमें कर्म में बाँधती हैं।
- कर्तृत्व की भावना ही बंधन का मूल है — जब तक “मैं करता हूँ” की भावना है, तब तक फल की अपेक्षा और दुःख बना रहेगा।
- प्रकृति के गुणों को समझें — आत्मज्ञान से हम सत्त्व, रजस, और तमस के प्रभाव से ऊपर उठ सकते हैं।
- ईश्वर है साक्षी — वह प्रेरक नहीं, केवल द्रष्टा है।
- मुक्ति का मार्ग — कर्तापन का त्याग और आत्मा की शुद्धता को पहचानना ही मुक्ति का रास्ता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने जीवन के कर्मों का दोष दूसरों या भगवान पर डालता हूँ?
क्या मैं “मैं करता हूँ” की भावना से ग्रसित हूँ या ईश्वर को समर्पित भाव से कर्म करता हूँ?
क्या मैं अपनी प्रवृत्तियों को पहचान कर उन्हें सुधारने का प्रयास करता हूँ?
क्या मेरे कर्म मुझे बांध रहे हैं या मुक्त कर रहे हैं?
क्या मैं समझ पा रहा हूँ कि ईश्वर केवल मार्गदर्शक है, कर्ता नहीं?
निष्कर्ष:
यह श्लोक भगवद्गीता के कर्मयोग का एक अत्यंत सूक्ष्म और गहरा रहस्य उद्घाटित करता है।
ईश्वर न तो हमें कर्म करने के लिए बाध्य करता है, न ही कर्म के परिणामों से जोड़ता है। ये सभी क्रियाएँ हमारी अपनी प्रकृति, संस्कारों और मानसिक वृत्तियों के कारण होती हैं।
परमात्मा तो केवल साक्षी रूप में स्थित है — न वह करता है, न करवाता है।
अतः यदि हम कर्तापन के अहंकार को त्यागकर आत्मा की साक्षी स्थिति में स्थित हो जाएँ, तो कर्म हमें नहीं बांध पाएगा। यही वास्तविक योग और आत्मज्ञान का आरंभ है।
मुक्ति का द्वार भीतर ही है — जब हम अपने स्वभाव को पहचानें और ईश्वर की ओर दृष्टि करें, तब कर्म स्वतः निर्मल और निष्कलंक हो जाते हैं।