मूल श्लोक – 16
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥
शब्दार्थ:
- ज्ञानेन — ज्ञान के द्वारा
- तु — परंतु / निश्चय ही
- तत् — वह
- अज्ञानम् — अज्ञान, अंधकार
- येषाम् — जिनकी
- नाशितम् — नष्ट हो गया है
- आत्मनः — आत्मा का, स्वभाविक रूप से
- तेषाम् — उन लोगों का
- आदित्यवत् — सूर्य के समान
- ज्ञानम् — आत्मज्ञान
- प्रकाशयति — प्रकाशित करता है, रोशनी करता है
- तत्परम् — वह परम सत्य (आत्मा / ब्रह्म)
किन्तु जिनकी आत्मा का अज्ञान दिव्यज्ञान से विनष्ट हो जाता है उस ज्ञान से परमतत्त्व का प्रकाश उसी प्रकार से प्रकाशित हो जाता है जैसे दिन में सूर्य के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।

विस्तृत भावार्थ:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में ज्ञान के प्रकाशस्वरूप को दर्शाते हैं। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश अंधकार को समाप्त कर हर वस्तु को स्पष्ट रूप से दिखा देता है, वैसे ही आत्मज्ञान अज्ञान के अंधकार को मिटाकर आत्मा की वास्तविक पहचान और परम तत्त्व को स्पष्ट कर देता है।
1. अज्ञान का नाश:
अज्ञान ही समस्त बंधनों, दुखों और मोह का मूल कारण है। जब किसी साधक में आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, तो वह अज्ञान का अंधकार समाप्त कर देता है।
2. आत्मा का स्वाभाविक प्रकाश:
आत्मा स्वयं में प्रकाशस्वरूप है, परंतु अज्ञानरूपी बादलों से ढँकी होने के कारण वह प्रकाशित नहीं हो पाती। ज्ञान ही वह तेज है जो आत्मा को पुनः प्रकाशित करता है।
3. ज्ञान का कार्य:
सच्चा ज्ञान केवल सूचनाएँ नहीं देता, वह चेतना को परिवर्तित करता है। जैसे सूर्य संपूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान संपूर्ण जीवन के प्रत्येक पहलू को आलोकित करता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
- अविद्या का नाश:
अविद्या (अज्ञान) के कारण जीव स्वयं को शरीर, मन, इंद्रियों से जोड़ लेता है और परमात्मा से भिन्न मानता है। जब ज्ञान उदित होता है, यह भ्रांति नष्ट हो जाती है। - ज्ञान = प्रकाश:
ज्ञान कोई बाहरी वस्तु नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर पहले से निहित प्रकाश है। वह तब ही प्रकट होता है जब अज्ञान हटता है। - ‘तत्परम्’ की व्याख्या:
यहाँ ‘तत्परम्’ शब्द ब्रह्म, परमात्मा, या परम सत्य को इंगित करता है — जो आत्मा का अंतिम लक्ष्य है। ज्ञान उस परम की ओर ले जाने वाला दीपक है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- अज्ञान — आत्मा की वास्तविक पहचान से अंधकार, भ्रम और माया
- ज्ञान — आत्मा के स्वरूप का बोध, ब्रह्म का साक्षात्कार
- आदित्यवत् — सूर्य की तरह, जो बिना किसी पक्षपात के सबको प्रकाशित करता है
- प्रकाशयति — केवल बाहरी नहीं, भीतरी चेतना को उज्ज्वल करना
- तत्परम् — ब्रह्म, परम सत्य, जो स्थिर, शुद्ध और निर्विकार है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है — अज्ञान के रहते कोई भी साधना पूर्ण नहीं मानी जाती।
- बाहरी जानकारी नहीं, आत्मिक अनुभूति ही सच्चा ज्ञान है — गीता ज्ञान को अनुभवजन्य और रूपांतरणकारी मानती है।
- सत्य का प्रकाश हर किसी के भीतर है — आवश्यकता है उस अज्ञान को हटाने की जो आत्मा को ढँके हुए है।
- सूर्य की भाँति निष्पक्षता — सच्चा ज्ञान किसी एक पर नहीं, सभी पर समान रूप से प्रकाश डालता है।
- ज्ञान से जीवन में स्पष्टता आती है — मोह और भ्रम हटते हैं, और व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को समझता हूँ या केवल सूचनाओं में उलझा हूँ?
क्या मेरा जीवन अज्ञान के अंधकार में है या आत्मिक प्रकाश से युक्त हो रहा है?
क्या मैंने स्वयं के भीतर परम सत्य को खोजने का प्रयास किया है?
क्या मेरा ज्ञान मुझे अहंकार देता है या विनम्रता और शांति?
क्या मैं आत्मा के प्रकाश को अनुभव कर पा रहा हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक भगवद्गीता की ज्ञानयोग परंपरा का एक अमूल्य रत्न है। यह बताता है कि ज्ञान ही वह सूर्य है जो आत्मा के भीतर विद्यमान परम सत्य को प्रकाशित करता है। जैसे अंधकार केवल प्रकाश से हटाया जा सकता है, वैसे ही अज्ञान केवल आत्मज्ञान से नष्ट होता है।
ज्ञान का जन्म जैसे ही होता है, आत्मा अपने परम रूप को पहचान लेती है — और वह सत्य, जिसे हम अलग समझते थे, वही भीतर सदैव विद्यमान था।
इसलिए गीता हमें केवल कर्म नहीं, वरन् विवेकपूर्ण ज्ञान की ओर भी प्रेरित करती है, जिससे जीवन केवल क्रिया न होकर प्रकाशमय यात्रा बन जाए — सत्य, प्रेम, और मुक्ति की ओर।