मूल श्लोक – 3
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
शब्दार्थ
- ज्ञेयः — जानने योग्य है, समझने योग्य है
- सः — वह व्यक्ति
- नित्यसंन्यासी — सदा त्यागी, सच्चा संन्यासी
- यः — जो
- न द्वेष्टि — द्वेष नहीं करता
- न काङ्क्षति — इच्छा नहीं करता
- निर्द्वन्द्वः — द्वंद्वों से रहित, सुख-दुख, लाभ-हानि से ऊपर
- हि — निश्चय ही
- महाबाहो — हे महाबाहु (अर्जुन के लिए संबोधन)
- सुखम् — सहजता से, आनंदपूर्वक
- बन्धात् — बंधन से, संसार के बंधनों से
- प्रमुच्यते — मुक्त हो जाता है
वे कर्मयोगी जो न तो कोई कामना करते हैं और न ही किसी से घृणा करते हैं उन्हें नित्य संन्यासी माना जाना चाहिए। हे महाबाहु अर्जुन! सभी प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होने के कारण वे माया के बंधनों से सरलता से मुक्ति पा लेते हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ संन्यास का सही अर्थ स्पष्ट कर रहे हैं। वह कहते हैं कि केवल बाह्य रूप से वस्त्र बदल लेने या जंगल में चले जाने से कोई संन्यासी नहीं बन जाता। जो भीतर से द्वेष और कामना से मुक्त है, वही नित्यसंन्यासी है।
इस श्लोक में द्वेष और आकांक्षा दो प्रमुख मानसिक विकारों को इंगित किया गया है, जो मनुष्य को संसार में बाँधते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी से द्वेष करता है, तो वह अपने मन को कटुता से भरता है। जब कोई कुछ पाने की तीव्र इच्छा करता है, तो वह वस्तु के साथ बंध जाता है। इन दोनों से मुक्त होकर ही व्यक्ति निर्विकल्प शांति और आत्ममुक्ति पा सकता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक मानसिक संन्यास को शारीरिक संन्यास से श्रेष्ठ बताता है।
- गीता के अनुसार वैराग्य और समत्व ही असली मुक्ति के द्वार हैं।
- “न द्वेष्टि न काङ्क्षति” — यह द्वैत के पार जाने की स्थिति है, जहाँ व्यक्ति न किसी से घृणा करता है, न किसी वस्तु की लालसा रखता है।
- निर्द्वन्द्व — यह अवस्था योग की चरम स्थिति है, जहाँ मन सम, स्थिर और संतुलित रहता है।
- मुक्त होने का मार्ग किसी कर्म विशेष को त्यागना नहीं है, बल्कि कर्म करते हुए राग-द्वेष और इच्छा-द्वेष से मुक्त होना है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- नित्यसंन्यासी — वह व्यक्ति जो हर क्षण आंतरिक त्याग की भावना में स्थित रहता है।
- द्वेष और काङ्क्षा — मन के दो प्रमुख बंधन हैं। पहला हमें पीछे बाँधता है, दूसरा भविष्य की ओर खींचता है।
- निर्द्वन्द्व — द्वैतों से परे की स्थिति: सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में समभाव।
- बंधन — आत्मा पर पड़ने वाली वह आभासी जंजीरें जो राग-द्वेष से बनती हैं।
- प्रमुच्यते — मोक्ष की दशा जिसमें आत्मा बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाती है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- संन्यास बाह्य नहीं, मानसिक अवस्था है — आंतरिक निर्मलता और अनासक्ति ही सच्चा त्याग है।
- द्वेष और कामना ही मनुष्य को बाँधते हैं — इनसे मुक्त होकर ही सच्ची शांति मिल सकती है।
- समाज में रहते हुए भी निर्विकल्प जीवन संभव है — संयम और विवेक से।
- कर्म से नहीं, भाव से मुक्ति होती है — यही गीता का रहस्य है।
- स्थिरता और समभाव आत्मिक उन्नति के मूल हैं।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने जीवन में किसी व्यक्ति या परिस्थिति से द्वेष करता हूँ?
क्या मैं किसी वस्तु या परिणाम की तीव्र आकांक्षा से बंधा हूँ?
क्या मैं अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर पाता हूँ या द्वंद्वों में फँस जाता हूँ?
क्या मेरा संन्यास बाहरी दिखावा है या भीतरी चेतना का परिणाम?
क्या मैं जीवन में समत्व की साधना कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि असली संन्यास केवल कर्म का त्याग नहीं है, बल्कि भावनाओं और मानसिक प्रतिक्रियाओं के बंधन से मुक्ति है। जो व्यक्ति न द्वेष करता है, न आकांक्षा, वही सच्चे अर्थों में मुक्त है। ऐसा व्यक्ति न केवल संन्यासी है, बल्कि योगी भी है।
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें कर्म, त्याग, और आत्म-मुक्ति का सही मार्ग दिखाता है — कि मुक्ति बाहर नहीं, भीतर की दशा में है। हमें संसार में रहते हुए भी आंतरिक रूप से निर्लिप्त और शांत रहने का अभ्यास करना चाहिए।