मूल श्लोक 5
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥
शब्दार्थ (शब्दों का संक्षिप्त अर्थ)
- यत् — जो
- साङ्ख्यैः — सांख्य योगियों द्वारा (ज्ञानमार्गियों द्वारा)
- प्राप्यते — प्राप्त किया जाता है
- स्थानं — वह अंतिम लक्ष्य, मोक्ष
- तत् — वही
- योगैः — कर्मयोगियों द्वारा (योग मार्ग से)
- अपि — भी
- गम्यते — प्राप्त किया जा सकता है
- एकं — एक ही है
- साङ्ख्यं — ज्ञानयोग
- च — और
- योगं — कर्मयोग
- यः पश्यति — जो देखता है, समझता है
- सः पश्यति — वही वास्तव में देखता है, वही ज्ञानी है
परमेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म संन्यास के माध्यम से जो प्राप्त होता है उसे भक्ति युक्त कर्मयोग से भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार जो कर्म संन्यास और कर्मयोग को एक समान देखते हैं वही वास्तव में सभी वस्तुओं को यथावत् रूप में देखते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि ज्ञान (सांख्य) और कर्म (योग) — दोनों अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि आत्मा की मुक्ति के दो विभिन्न साधन हैं जो अंततः एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं।
ज्ञानमार्ग (सांख्य) वह पथ है जिसमें विवेक, वैराग्य और ध्यान के माध्यम से आत्मा को परमात्मा के साथ एकत्व का अनुभव कराया जाता है। वहीं, कर्मयोग वह मार्ग है जिसमें निस्वार्थ भाव से कर्म करते हुए व्यक्ति अपने अहं को त्यागता है और आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है।
यहाँ श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति यह भेद करना बंद कर देता है कि एक मार्ग श्रेष्ठ है और दूसरा नहीं — और दोनों को एक ही ब्रह्म-सत्य की ओर ले जाने वाला समझता है — वही वास्तविक रूप से तत्त्वदर्शी है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक अद्वैत वेदान्त की भावना को प्रतिबिंबित करता है, जहाँ हर मार्ग (ज्ञान या कर्म) अंततः उसी एक आत्म-सत्य की ओर ले जाता है।
- सांख्य और योग को सामान्यतः अलग-अलग दर्शन माने जाते हैं, लेकिन यहाँ भगवान श्रीकृष्ण दोनों की एकता की घोषणा कर रहे हैं।
- ज्ञानयोगी ‘मैं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) के बोध से मुक्त होता है, और कर्मयोगी ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ (कर्म करो, फल की चिंता मत करो) की भावना से अहंकार से मुक्त होकर।
- दोनों मार्गों में अंततः अहंकार, ममता और द्वंद्व का क्षय होता है, और यही मोक्ष की कुंजी है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- सांख्य = वह व्यक्ति जो केवल आत्मज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है।
- योगी = वह जो कर्म करता है, लेकिन आसक्ति से रहित होकर।
- स्थानं = मोक्ष, निर्वाण, आत्मा की पूर्णता।
- पश्यति सः पश्यति = जो व्यक्ति इस एकता को जान जाता है, वही वास्तविक ज्ञानी है, उसके दृष्टिकोण में विभाजन नहीं है।
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि ज्ञान और कर्म, बुद्धि और क्रिया, ध्यान और सेवा — सभी आध्यात्मिक विकास के अंग हैं, और यदि इनका समन्वय समझ लिया जाए, तो व्यक्ति संपूर्णता की ओर बढ़ता है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्चा योग दृष्टिकोण का विषय है, पथ का नहीं — कोई भी मार्ग चुना जाए, यदि उसमें अनासक्ति, विवेक और आत्म-समर्पण है, तो वह मोक्ष की ओर ले जाता है।
- भेद नहीं, समता की दृष्टि अपनाएं — संकीर्ण दृष्टिकोण की बजाय समग्र दृष्टि से देखना चाहिए कि सभी साधन एक ही लक्ष्य की ओर हैं।
- क्रिया में ज्ञान और ज्ञान में क्रिया समाहित है — कर्म के बिना ज्ञान अधूरा है और ज्ञान के बिना कर्म अंधा है।
- योग और सांख्य में संघर्ष नहीं, समन्वय है — आज के जीवन में भी हमें कर्म में ज्ञान और ज्ञान में कर्म का समावेश करके संतुलन बनाना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं किसी एक साधना को श्रेष्ठ मानकर अन्य मार्गों को हीन समझता हूँ?
क्या मेरी साधना में ज्ञान और कर्म का संतुलन है?
क्या मैं बाह्य क्रिया करते हुए भी अंतर्मुख ध्यान और विवेक बनाए रखता हूँ?
क्या मैं दूसरों के मार्ग को नकार कर अपनी साधना को ही अंतिम मानता हूँ?
क्या मैं यह समझने की कोशिश करता हूँ कि सभी मार्ग एक ही सत्य की ओर अग्रसर हैं?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक हमें मानसिक परिपक्वता और समता की शिक्षा देता है। सांख्य (ज्ञानयोग) और योग (कर्मयोग) दोनों अलग-अलग नहीं, बल्कि आत्ममुक्ति के सहचर मार्ग हैं। जो व्यक्ति इन दोनों में कोई भेद नहीं करता, वही वास्तव में पथदर्शी है।
यह श्लोक वर्तमान जीवन की व्यस्तता में भी अत्यंत प्रासंगिक है — हम चाहे जो कार्य करें, यदि वह ज्ञानपूर्वक, निस्वार्थ, और अहंकार-रहित हो, तो वह साधना का ही रूप है। कर्म करते हुए ज्ञान की भावना और ज्ञान में कर्म की निष्कामता — यही श्रीकृष्ण का योग दर्शन है।
“जो सांख्य और योग को एक मानकर देखता है, वही सच्चा ज्ञानी है।”