मूल श्लोक – 9
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥9॥
शब्दार्थ (शब्दों का संक्षिप्त अर्थ)
- प्रलपन् — बोलते हुए
- विसृजन् — त्यागते हुए, विसर्जन करते हुए
- गृह्णन् — ग्रहण करते हुए
- उन्मिषन् — आँखें खोलते हुए
- निमिषन् — आँखें बंद करते हुए
- अपि — भी
- इन्द्रियाणि — इन्द्रियाँ
- इन्द्रियार्थेषु — इन्द्रियों के विषयों में
- वर्तन्ते — कार्यरत हैं, संलग्न हैं
- इति धारयन् — ऐसा मानते हुए, ऐसा सोचते हुए
बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए और आंखें खोलते या बंद करते हुए सदैव यह सोचते हैं- ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ और दिव्य ज्ञान के आलोक में वे केवल यह देखते हैं कि भौतिक इन्द्रियाँ ही अपने विषयों में क्रियाशील रहती हैं आत्मा नहीं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति कर्मों को किस दृष्टिकोण से देखता है। वह यह मानकर चलता है कि वह स्वयं नहीं, बल्कि उसकी इन्द्रियाँ ही उनके-अपने-अपने विषयों में कार्य कर रही हैं। यह दृष्टिकोण उसे कर्मों के बंधन से मुक्त रखता है।
जीवन में हर क्षण — बोलना, देखना, त्यागना, ग्रहण करना, आँखें खोलना या बंद करना — सभी क्रियाएं शरीर की हैं, आत्मा की नहीं। आत्मा तो साक्षी है, कर्ता नहीं। यह समझ जो व्यक्ति प्राप्त कर लेता है, वह कर्म करते हुए भी कर्म में लिप्त नहीं होता।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक कर्तृत्व-अहंकार के त्याग की ओर इंगित करता है।
- गीता की दृष्टि से ‘कर्म बंधन’ तब उत्पन्न होता है जब हम ‘मैं करता हूँ’ का भाव रखते हैं।
- आत्मा अकर्ता (कर्ता नहीं) है — यह विचार ही व्यक्ति को कर्मों से मुक्त करता है।
- “इन्द्रियाणी इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते” — यह वाक्य आत्मा की साक्षीभाव स्थिति को दर्शाता है।
- यह श्लोक सांख्य योग की भी पुष्टि करता है जहाँ आत्मा और प्रकृति (शरीर/इन्द्रियाँ) को भिन्न माना जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- प्रलपन, विसृजन, गृह्णन् — सांसारिक क्रियाएं: संवाद, देना, लेना — सभी जीवन में सामान्य हैं।
- उन्मिषन्, निमिषन् — आंखें खोलना-बंद करना: सबसे सूक्ष्म शारीरिक क्रियाएं।
- इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते — शरीर की इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं; आत्मा इनमें संलग्न नहीं होती।
- इति धारयन् — जो इस तथ्य को ‘धारणा’ (स्थायी समझ) के रूप में स्थापित कर लेता है, वही ज्ञानी है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्तापन का त्याग ही मुक्ति का द्वार है।
– जब हम समझते हैं कि ‘मैं’ नहीं कर रहा, केवल इन्द्रियाँ अपने स्वभाव से काम कर रही हैं, तब कर्म बंधन नहीं बनता। - आत्मा केवल साक्षी है।
– आत्मा केवल देखती है, भोगती नहीं। इन्द्रियाँ ही कार्य करती हैं। - ज्ञान के साथ कर्म करना ‘कर्मयोग’ है।
– ‘ज्ञानी’ कर्म करता है लेकिन उसमें लिप्त नहीं होता क्योंकि उसका दृष्टिकोण शुद्ध है। - सामान्य जीवन भी मुक्तिपथ हो सकता है।
– हर क्रिया में यदि साक्षीभाव हो, तो सांसारिक जीवन भी आध्यात्मिक जीवन बन सकता है। - धारणा ही व्यवहार को परिवर्तित करती है।
– “इति धारयन्” — समझ को गहराई से आत्मसात करना ही ज्ञान की परिपक्वता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं हर कार्य में ‘मैं कर रहा हूँ’ का अहंकार रखता हूँ?
क्या मैं शरीर और आत्मा में भेद स्पष्ट देख पाता हूँ?
क्या मेरी दैनिक गतिविधियाँ मुझे बाँधती हैं या मैं उनमें साक्षी रहता हूँ?
क्या मैं इन्द्रियों को आत्मा का कार्य मान बैठता हूँ?
क्या मेरी समझ केवल बौद्धिक है या मैंने उसे आत्मसात भी किया है?
निष्कर्ष
यह श्लोक आत्मा और शरीर के भेद की सबसे गहन व्याख्या करता है। जो व्यक्ति समझ लेता है कि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में संलग्न हैं, और आत्मा केवल साक्षी है — वह कर्म करते हुए भी कर्म के फल में नहीं बंधता।
भगवद्गीता का यह दृष्टिकोण अत्यंत क्रांतिकारी है — यह दिखाता है कि मोक्ष केवल तप या त्याग से नहीं, बल्कि दृष्टिकोण की शुद्धता से प्राप्त होता है। जब हम जान जाते हैं कि कर्तापन केवल शरीर का है, आत्मा का नहीं, तभी हम सच्चे अर्थों में ‘कर्मयोगी’ बनते हैं।
“कर्तापन का अभाव ही मुक्तिपथ है।”