Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 1

मूल श्लोक – 1

श्रीभगवानुवाच ।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥1॥

शब्दार्थ

  • अनाश्रितः — निर्भर नहीं, आश्रय न लेने वाला
  • कर्म-फलम् — कर्म का फल, कर्म के परिणाम
  • कार्यं कर्म — कर्तव्य रूप कर्म, जो करना चाहिए
  • करोति — करता है
  • यः — जो
  • सः — वही
  • संन्यासी — त्यागी, जिसने संसार के बंधनों का त्याग किया है
  • योगी — योग करने वाला, साधक
  • न निरग्निः — केवल अग्नि का त्याग करने वाला नहीं (न कर्मों से विरत होकर)
  • न च अक्रियः — न ही जो कर्म न करता हो

परम प्रभु ने कहा! वे मनुष्य जो कर्मफल की कामना से रहित होकर अपने नियत कर्मों का पालन करते हैं वे वास्तव में संन्यासी और योगी होते हैं, न कि वे जो अग्निहोत्र यज्ञ संपन्न नहीं करते अर्थात अग्नि नहीं जलाते और शारीरिक कर्म नहीं करते।

विस्तृत भावार्थ

श्रीकृष्ण इस श्लोक में संन्यास और योग के सही अर्थ को स्पष्ट कर रहे हैं। सामान्यतः लोग यह मान लेते हैं कि जो व्यक्ति अग्नि (हवन, गृहस्थ कर्म) का त्याग कर देता है या सभी कर्मों को छोड़कर निष्क्रिय बैठ जाता है, वही संन्यासी है। लेकिन भगवान इस भ्रम को तोड़ते हुए कहते हैं कि:

  • संन्यास और योग का वास्तविक स्वरूप केवल बाहरी कर्मों का परित्याग नहीं है,
  • बल्कि अंतर में फल की अपेक्षा का त्याग करते हुए कर्तव्य का पालन करना है।

जिस व्यक्ति ने कर्म के प्रति निष्काम भाव धारण कर लिया है, अर्थात वह कर्म करता है लेकिन फल की कामना नहीं करता, वह ही वास्तव में त्यागी (संन्यासी) और योगी है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक कर्मयोग की नींव रखता है — निष्काम कर्म, अर्थात बिना फल की आसक्ति के कर्म करना।
  • संन्यास का अर्थ केवल भौतिक वस्तुओं और क्रियाओं का त्याग नहीं, बल्कि मनोवृत्तियों का त्याग है।
  • यह श्लोक बताता है कि त्याग बाहर नहीं, अंदर होता है।
  • योग कोई विशेष आसन या ध्यान ही नहीं, बल्कि जीवन के हर कर्म में संतुलन और समत्वभाव है।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
कर्मजीवन की गतिविधियाँ, जिम्मेदारियाँ
फलअपेक्षा, लाभ, पुरस्कार की आकांक्षा
संन्यासीवह जो संसार में रहते हुए भी मोह से मुक्त है
योगीवह जो अपने कर्मों को समत्व और भक्ति से करता है
निरग्निःबाह्य आडंबर का त्याग, केवल रूपात्मक वैराग्य
अक्रियःआलस्य या निष्क्रियता की अवस्था

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • जीवन में कर्तव्य से भागना संन्यास नहीं, कर्तव्य को फल की चिंता बिना निभाना संन्यास है।
  • सच्चा योग है — कर्म करते हुए भी अंतर्मन शांत और निर्लिप्त रहना।
  • हमें प्रत्येक कर्म को भगवान को समर्पित करते हुए निष्काम भाव से करना चाहिए।
  • यह श्लोक सिखाता है कि त्याग का सच्चा स्थान हृदय में होता है, न कि बाहरी जीवन में।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  • क्या मैं अपने कार्यों को ईश्वर को समर्पित कर निष्काम भाव से करता हूँ?
  • क्या मैं कर्मों के फलों को लेकर भीतर से जुड़ा हुआ हूँ या स्वतंत्र हूँ?
  • क्या मैंने त्याग को केवल बाह्य आडंबरों में सीमित कर दिया है या वह मेरे मन में है?
  • क्या मेरी निष्क्रियता को मैं संन्यास समझ बैठा हूँ?
  • क्या मैं संसार में रहते हुए भी योगी का जीवन जीने का प्रयास कर रहा हूँ?

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि त्यागी वही है जो आसक्ति का त्याग करता है, न कि वह जो कर्म छोड़ता है। कर्म छोड़ना त्याग नहीं, कर्म में आसक्ति छोड़ना ही सच्चा संन्यास है

योग वही है जो कर्म करता है लेकिन फल की चिंता नहीं करता। इस प्रकार, कर्मयोगी ही सच्चा संन्यासी और योगी है

इस श्लोक की शिक्षा यह है कि कर्तव्य पर केंद्रित रहो, फल पर नहीं — यही मुक्ति की ओर पहला कदम है।

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