Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 12

मूल श्लोक – 12

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥

शब्दार्थ

तत्र — वहाँ (निर्धारित ध्यान स्थान पर)
एकाग्रं — एकाग्रचित्त
मनः — मन को
कृत्वा — करके, स्थापित करके
यतचित्त — संयमित चित्त वाला
इन्द्रियक्रियः — इन्द्रियों की क्रियाओं को नियंत्रित रखने वाला
उपविश्य — बैठकर
आसने — आसन पर
युञ्ज्यात् — योग का अभ्यास करे
योगम् — ध्यान, आत्म-साधना
आत्मविशुद्धये — आत्मा की शुद्धि के लिए, अंतःकरण की पवित्रता हेतु

योगी को उस आसन पर दृढ़तापूर्वक बैठ कर मन को शुद्ध करने के लिए सभी प्रकार के विचारों तथा क्रियाओं को नियंत्रित कर मन को एक बिन्दु पर स्थिर करते हुए साधना करनी चाहिए।

विस्तृत भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में योगाभ्यास की क्रियात्मक विधि का विवरण दे रहे हैं। ध्यान को सफलतापूर्वक साधने के लिए चार आवश्यक तत्व बताये गए हैं:

  1. स्थिर स्थान (तत्र) — ध्यान का अभ्यास शांत, एकांत और पवित्र स्थल पर हो।
  2. एकाग्र मन (एकाग्रं मनः कृत्वा) — चित्त को इधर-उधर न भटकने देना। जो ध्यान बिखरे हुए मन से किया जाए, वह गहरा नहीं होता।
  3. इन्द्रिय संयम (यतचित्तेन्द्रियक्रियः) — मन और इन्द्रियाँ दोनों वश में रहें। यदि इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती रहेंगी तो साधना व्यर्थ जाएगी।
  4. आसन पर बैठना (उपविश्यासने) — निश्चित, स्थिर और आरामदायक आसन में बैठना ताकि शरीर ध्यान में बाधा न बने।

इन सभी तैयारियों के बाद योगी को योग का अभ्यास करना चाहिए (युञ्ज्यात् योगम्) — न केवल अभ्यास के रूप में, बल्कि आत्मा की शुद्धि के उद्देश्य से (आत्मविशुद्धये)।

यह आत्म-शुद्धि केवल शारीरिक या मानसिक नहीं, बल्कि अहंकार, विकार, और वासनाओं की शुद्धि है। यही शुद्धि ध्यान का अंतिम फल है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • ध्यान कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धिकरण का मार्ग है।
  • आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार तभी होता है जब चित्त और इन्द्रियाँ पूर्ण संयमित हों।
  • “आत्मविशुद्धि” का अर्थ है — चित्त की शुद्धि, जो हमें भ्रम, द्वेष, लोभ, मोह से मुक्त करती है।
  • योग केवल बैठने या ध्यान की मुद्रा में आने की क्रिया नहीं है; यह एक संपूर्ण मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है।
  • इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि योग का उद्देश्य केवल मानसिक शांति नहीं, बल्कि आत्मिक उन्नति और मुक्ति है।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
तत्रवह आंतरिक मंच जहाँ साधना होती है — हृदय, चित्त
एकाग्र मनजो भूत, भविष्य और विषय-विकारों से मुक्त हो चुका है
यतचित्तसंयम से प्रशिक्षित मन, जो नियंत्रण में हो
इन्द्रियक्रियःइन्द्रियों की गति और प्रतिक्रिया पर पूर्ण निगरानी
आसनजीवन की एक संतुलित अवस्था, केवल बैठने की मुद्रा नहीं
आत्मविशुद्धिआत्मा से विकारों की सफाई — राग, द्वेष, मोह, अहंकार से मुक्ति

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • ध्यान की सफलता के लिए केवल शरीर बैठा होना पर्याप्त नहीं — मन और इन्द्रियाँ भी स्थिर होनी चाहिए।
  • योग आत्मा को शुद्ध करने की एक साधना है — यह कोई प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मिक जागरण है।
  • चित्त की एकाग्रता बिना संयम के संभव नहीं।
  • एक उचित स्थान, उचित समय और उचित मनःस्थिति — ये योग की सिद्धि के मूल स्तम्भ हैं।
  • आत्मा की शुद्धि के बिना ईश्वर के साक्षात्कार की कल्पना भी अधूरी है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं ध्यान के लिए एक शांत, एकाग्र वातावरण चुनता हूँ?
  2. क्या मेरा मन साधना के समय पूर्ण रूप से वर्तमान क्षण में होता है?
  3. क्या मेरी इन्द्रियाँ मेरे नियंत्रण में हैं, या वे विषयों की ओर आकर्षित होती रहती हैं?
  4. क्या मेरी साधना आत्मिक शुद्धि के लिए है, या केवल मानसिक शांति पाने के लिए?
  5. क्या मेरा आसन, समय और चित्त योग के अनुकूल है?
  6. क्या मैं साधना को जीवन का हिस्सा बनाता हूँ, या केवल एक समयबद्ध क्रिया?

निष्कर्ष

इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान-साधना की सच्ची विधि को अत्यंत सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। योग केवल आसन और प्राणायाम नहीं, बल्कि एक आंतरिक प्रक्रिया है जो आत्मा को शुद्ध करती है और परमात्मा के समीप ले जाती है।

ध्यान तब सफल होता है जब
मन एकाग्र, इन्द्रियाँ संयमित, चित्त स्थिर, और उद्देश्य स्पष्ट हो — आत्मशुद्धि।

इसलिए, जो साधक योग को आत्मा की शुद्धि का माध्यम मानता है, वह धीरे-धीरे विकारों से मुक्त होकर दिव्य चेतना में प्रविष्ट हो जाता है। यही भगवद्गीता का ध्यानयोग है — सतत साधना द्वारा आत्मशुद्धि और परमात्मा की प्राप्ति।

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