मूल श्लोक – 18
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥18॥
शब्दार्थ
यदा — जब
विनियतं — संयमित, नियंत्रित
चित्तम् — मन, चेतना
आत्मनि एव — आत्मा में ही
अवतििष्ठते — स्थित होता है, टिकता है
निःस्पृहः — इच्छा-रहित, आकांक्षारहित
सर्वकामेभ्यः — सभी भौतिक इच्छाओं से
युक्तः — योगी, एकाग्र
इति उच्यते — कहा जाता है
तदा — तब
पूर्ण रूप से अनुशासित होकर जो अपने मन को स्वार्थों एवं लालसाओं से हटाना सीख लेते हैं और इसे अपनी आत्मा के सर्वोत्कृष्ट लाभ में लगा देते हैं, ऐसे मनुष्यों को योग में स्थित कहा जा सकता है और वे सभी प्रकार की इन्द्रिय लालसाओं से मुक्त होते हैं।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक ध्यानयोग की सिद्ध अवस्था का वर्णन करता है। श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि सच्चा योग क्या है और योगी कौन कहलाने योग्य है।
विनियतं चित्तम् — जब मन पूरी तरह संयमित और वश में हो जाता है। यह अवस्था अभ्यास और संयम के द्वारा प्राप्त होती है।
आत्मन्येव अवतिष्ठते — जब यह नियंत्रित चित्त बाहर की वस्तुओं, विषयों, विकर्षणों से हटकर आत्मा में स्थिर हो जाता है। यह अंतरमुखता की चरम अवस्था है।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः — एक सच्चा योगी वह है जो समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो गया है। स्पृहा (तृष्णा) जितनी रहती है, उतना ही मन चंचल बना रहता है।
युक्त इत्युच्यते तदा — ऐसी अवस्था में ही साधक को “युक्त” अर्थात् योग में स्थित कहा जाता है — जहाँ न कोई अभाव है, न आकांक्षा, केवल आत्मा में स्थिरता और परमात्मा से जुड़ाव है।
यह श्लोक बताता है कि योग का चरम लक्ष्य केवल एकाग्रता नहीं, बल्कि वासनाओं से रहित चित्त की आत्मा में स्थिरता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- चित्त की स्थिति ही हमारी चेतना की दिशा को तय करती है — यदि चित्त बाहर के विषयों में है, तो बंधन; यदि आत्मा में है, तो मुक्ति।
- जब कोई कामना नहीं रहती, तो चित्त प्राकृतिक रूप से शांत हो जाता है और ध्यान गहरा होता है।
- योग केवल क्रिया नहीं, यह आत्मिक स्थिरता और समत्व की अवस्था है।
- आत्मा में स्थित चित्त ही भगवद्भाव, आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
- यह अवस्था केवल ज्ञान या इच्छा से नहीं आती, साधना, वैराग्य और अभ्यास से आती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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विनियत चित्त | ऐसा मन जो इन्द्रियों और वासनाओं से ऊपर उठ चुका हो |
आत्मन्येव स्थित | बाह्य विषयों से हटकर भीतर की आत्मा में स्थायित्व प्राप्त करना |
निःस्पृहः | निराकांक्षा, निस्वार्थ भाव, त्याग की परिपक्व अवस्था |
सर्वकामेभ्यः | केवल इंद्रियजन्य इच्छाएँ नहीं, बल्कि सभी प्रकार के सांसारिक लोभ |
युक्तः | परमात्मा से जुड़ा हुआ, ध्यान में एकीकृत साधक |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- योग का उद्देश्य केवल मानसिक शांति नहीं, बल्कि आत्मा की अनुभूति है।
- यह अनुभूति तभी संभव है जब मन सभी इच्छाओं से मुक्त होकर आत्मा में स्थित हो।
- आत्म-साक्षात्कार की राह में सबसे बड़ा बाधक — कामनाएँ हैं।
- कामनाओं के रहते ध्यान सतही होता है, गहराई तभी आती है जब मन पूर्ण समर्पण और संतुलन में होता है।
- सच्चा योगी वह है जिसे न कुछ पाने की आकांक्षा हो, न कुछ खोने का भय।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा चित्त नियंत्रित है या विषयों की ओर दौड़ता रहता है?
- क्या मैं आत्मा में स्थिरता का अनुभव करता हूँ, या केवल विचारों के प्रवाह में उलझा हूँ?
- क्या मेरी साधना भौतिक इच्छाओं से प्रेरित है, या आत्म-शुद्धि और परमात्मा की प्राप्ति के लिए है?
- क्या मैं निःस्पृहता के मार्ग पर चल रहा हूँ, या अब भी किसी आकांक्षा से बंधा हूँ?
- क्या मैं सच्चे योग की ओर अग्रसर हूँ, या केवल बाह्य रूप से ध्यान की क्रिया कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक ध्यानयोग की परिपूर्णता को दर्शाता है।
योग की चरम अवस्था केवल आँखें बंद करके बैठ जाना नहीं है, बल्कि उस बिंदु तक पहुँचना है जहाँ —
“चित्त पूर्ण रूप से संयमित हो,
भविष्य या भूत में न जाए,
कामनाएँ विलीन हो जाएँ,
और आत्मा में स्थिर हो जाए।”
जब साधक इस अवस्था को प्राप्त करता है, तब ही वह युक्त कहलाता है —
मतलब, वह ईश्वर से जुड़ा हुआ है, स्वयं में स्थित है, स्वतंत्र है।
यही है सच्चा योग — जहां मन रुकता नहीं, स्थिर होता है।
जहाँ इच्छा नहीं, अनुभूति होती है।
जहाँ साधना क्रिया नहीं, चेतना बन जाती है।