मूल श्लोक – 20
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥20॥
शब्दार्थ
यत्र — जहाँ
उपरमते — शांत हो जाता है, विराम पाता है
चित्तम् — मन
निरुद्धम् — पूरी तरह से नियंत्रित
योगसेवया — योग के अभ्यास द्वारा
चैव — और भी
आत्मनि — आत्मा में
आत्मानं — आत्मा को
पश्यन् — देखता है, अनुभव करता है
तुष्यति — संतुष्ट होता है, आनंदित होता है
जब मन भौतिक क्रियाओं से दूर हट कर योग के अभ्यास से स्थिर हो जाता है तब योगी शुद्ध मन से आत्म-तत्त्व को देख सकता है और आंतरिक आनन्द में मगन हो सकता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक भगवद्गीता के ध्यानयोग अध्याय में एक अत्यंत गूढ़ अनुभव की स्थिति का वर्णन करता है — ध्यान की सिद्ध अवस्था, जिसे योग की चरम परिणति कहा जा सकता है।
चित्त उपरमते — यह वह स्थिति है जहाँ साधक का चित्त सभी विषय-विकारों से, संकल्प-विकल्प से, बाह्य आकर्षणों से शांत हो जाता है।
निरुद्धम् योगसेवया — यह चित्त की अवस्था अचानक नहीं आती, बल्कि निरंतर योगसाधना (ध्यान, संयम, अभ्यास) से आती है। ‘निरुद्ध’ का अर्थ है — चित्त की संपूर्ण प्रवृत्तियों का थम जाना, जहां केवल अस्तित्व शेष रह जाता है।
आत्मन्यात्मानं पश्यन् — जब साधक अपने भीतर आत्मा को देखता है। यह देखने का अर्थ आँखों से देखना नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभूति और आत्म-साक्षात्कार है।
आत्मनि तुष्यति — जब यह आत्मा की झलक मिलती है, तो साधक किसी बाह्य वस्तु या परिस्थिति में सुख नहीं खोजता, बल्कि अपने ही भीतर पूर्ण संतोष का अनुभव करता है।
यह वह आनंद है जो न विषयों से आता है, न विचारों से, केवल आत्मानुभूति से आता है — इसे ही परमानंद या निर्वाण की स्थिति कहा गया है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- चित्त को शांत करना ध्यान की पहली सीढ़ी है, और आत्मा में स्थित होना अंतिम।
- आत्मा को आत्मा में देखना — यह अद्वैत वेदांत की पराकाष्ठा है।
- जब चित्त निष्क्रिय होता है, तभी आत्मा की वास्तविक झलक मिलती है।
- बाहर की वस्तुओं से संतोष अस्थायी होता है, भीतर से उत्पन्न संतोष ही परम होता है।
- यह श्लोक ‘स्वयं में स्थित होने की कला’ सिखाता है, जो किसी गुरु, पुस्तक, या विषय से नहीं, केवल साधना और आत्म-अनुभव से प्राप्त होती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
चित्त उपरमते | मन की समस्त चंचलता और हलचल का समाप्त हो जाना |
निरुद्धम् | मन की संकल्पनाओं और इच्छाओं का विलीन हो जाना |
योगसेवा | केवल आसन-प्राणायाम नहीं, जीवनभर का समर्पित साधक भाव |
आत्मा को आत्मा में देखना | आत्मा की शुद्ध चेतना का साक्षात्कार |
तुष्टि | आत्मिक संतोष, जो किसी बाहरी वस्तु पर आधारित नहीं होता |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ध्यान की सिद्धि चित्त की पूर्ण शांति और आत्मा की अनुभूति में है।
- आत्मा के साक्षात्कार के बाद ही सच्चा आनंद प्राप्त होता है।
- बाहरी विषयों में सुख खोजने वाला कभी तुष्ट नहीं होता, लेकिन जो आत्मा में स्थित हो गया, वही सदा संतुष्ट रहता है।
- साधना का लक्ष्य केवल मानसिक शांति नहीं, आत्मिक अनुभूति और परमानंद है।
- चित्त को बाहर से भीतर लाने की कला ही ध्यान है, और आत्मा में स्थिरता ही मोक्ष है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा चित्त अभी भी विषयों और विचारों में उलझा हुआ है?
- क्या मैंने चित्त को योग के अभ्यास द्वारा नियंत्रित करने का प्रयत्न किया है?
- क्या मैं अपने भीतर की आत्मा का अनुभव करने की दिशा में साधना कर रहा हूँ?
- क्या मैं संतोष बाहरी चीज़ों में ढूँढ़ रहा हूँ, या अपने भीतर खोजने का प्रयास कर रहा हूँ?
- क्या मेरी साधना मुझे आत्म-तुष्टि की ओर ले जा रही है या केवल मानसिक आराम तक सीमित है?
निष्कर्ष
यह श्लोक ध्यानयोग का मर्म प्रकट करता है — चित्त की पूर्ण निवृत्ति और आत्मा में आत्मा की अनुभूति।
जब साधक अपने भीतर परमात्मा की झलक पाता है,
और बाह्य विषयों से पूर्णत: विरक्त होकर भीतर ही तृप्त हो जाता है —
तभी उसे युक्त, पूर्ण और मुक्त कहा जा सकता है।
यही है ध्यान की चरम स्थिति —
जहाँ कोई स्पृहा नहीं, कोई इच्छा नहीं, केवल परमात्मा का अनुभव और आत्मा का परमानंद शेष रह जाता है।
“चित्त जब भीतर विश्राम पाता है — वही योग का शिखर है।”