Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 22

मूल श्लोक – 22

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरूणापि विचाल्यते ॥22॥

शब्दार्थ

यं — जिसे
लब्ध्वा — प्राप्त करके
— और
अपरं लाभं — अन्य कोई लाभ
न मन्यते — नहीं मानता
अधिकं ततः — उससे बढ़कर
यस्मिन् स्थितः — जिसमें स्थित होकर
न दुःखेन — किसी भी प्रकार के दुःख से
गुरूणा अपि — अत्यंत भारी दुःख से भी
विचाल्यते — विचलित नहीं होता है

ऐसी अवस्था प्राप्त कर कोई और कुछ श्रेष्ठ पाने की इच्छा नहीं करता। ऐसी सिद्धि प्राप्त कर कोई मनुष्य बड़ी से बड़ी आपदाओं में विचलित नहीं होता।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ध्यानयोग की परिपूर्ण अवस्था और उसका फल समझाते हैं। यह वह अनुभव है जिसे प्राप्त करके साधक को लगता है कि अब कुछ और पाने योग्य नहीं है, और फिर कोई भी संसारिक दुःख उसे हिला नहीं सकता।

यं लब्ध्वा — वह दिव्य अनुभूति, वह आत्मा की प्राप्ति जिसे योग द्वारा जाना गया है

च अपरं लाभं न मन्यते अधिकं ततः — उसके बाद साधक को कोई अन्य लाभ बड़ा नहीं लगता — न धन, न पद, न यश

यस्मिन् स्थितः — इस आत्मिक स्थिति में जब साधक स्थिर हो जाता है

न दुःखेन गुरूणापि विचाल्यते — तब संसार का सबसे भारी दुःख भी उसे डिगा नहीं पाता, क्योंकि वह अब आत्मा में स्थित है — शरीर और संसार के प्रभावों से परे

यह श्लोक बताता है कि ध्यानयोग का परम उद्देश्य केवल चित्त की शांति नहीं, बल्कि ऐसा आत्म-साक्षात्कार है जो साधक को पूर्ण, अडोल और अडिग बना देता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • आत्मा की अनुभूति के बाद, संसार का हर लाभ तुच्छ प्रतीत होता है
  • सामान्य व्यक्ति छोटी-छोटी बातों से डगमगा जाता है, परंतु जो आत्मस्थित है, वह महादुःख में भी अचल रहता है।
  • ध्यान और आत्मसाक्षात्कार का परिणाम एक परम संतोष और मानसिक अपराजेयता है।
  • यही है स्थितप्रज्ञता, यही है योगस्थता, यही है मोक्ष का अनुभव।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
लाभसांसारिक उपलब्धियाँ — धन, पद, संबंध, ज्ञान, सत्ता आदि
अपरं लाभंअन्य कोई सांसारिक सफलता या भोग जिसकी इच्छा बनी रहे
अधिकं न मन्यतेपूर्ण संतोष, जिसके बाद और कुछ पाने की आकांक्षा नहीं बचती
गुरूणापि दुःखेनजीवन के सबसे भारी संकट, जैसे मृत्यु, वियोग, अपमान, हानि
विचाल्यतेमानसिक रूप से डगमगाना, क्रोधित या दुखी होना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • आत्मिक अनुभूति वह सर्वोच्च लाभ है जिसके बाद मनुष्य पूर्ण तृप्त हो जाता है।
  • आत्मा की स्थिति को प्राप्त करने वाला साधक बाहरी परिस्थितियों से अप्रभावित हो जाता है।
  • यह स्थिरता केवल ज्ञान से नहीं, निरंतर साधना और योग की साधना से आती है।
  • जो कुछ भी बदल सकता है (जैसे धन, शरीर, यश), वह स्थायी लाभ नहीं है — स्थायी लाभ आत्मा की अनुभूति है।
  • यही स्थिति है जहाँ मानव दुखों की सीमा पार कर जाता है, और भीतर स्थायी आनंद में स्थित हो जाता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं किसी ऐसी उपलब्धि की कल्पना करता हूँ जिसके बाद मुझे लगे कि अब कुछ और पाने की आवश्यकता नहीं?
  2. क्या मेरे भीतर इतनी आंतरिक स्थिरता है कि भारी दुःख भी मुझे विचलित न करे?
  3. क्या मैं अपनी साधना को केवल मानसिक शांति तक सीमित रखता हूँ या आत्मिक प्राप्ति तक ले जाने का प्रयास करता हूँ?
  4. क्या मैं बाहरी लाभों को सर्वोच्च मानकर चलता हूँ या आत्मिक लाभों को प्राथमिकता देता हूँ?
  5. क्या मेरा जीवन आत्मिक तृप्ति की दिशा में बढ़ रहा है या बाह्य आकर्षणों में उलझा हुआ है?

निष्कर्ष

भगवद्गीता के इस श्लोक में योग का परम फल बताया गया है —
वह स्थिति जिसमें मनुष्य को आत्मा का ऐसा साक्षात्कार होता है कि फिर वह किसी भी सांसारिक उपलब्धि को महान नहीं मानता, और संसार का कोई भी दुःख उसे डिगा नहीं सकता।

“जो कुछ भी खो नहीं सकता, वही सच्चा लाभ है।
और जो कुछ भी हिला नहीं सकता, वही सच्ची स्थिति है।”

ध्यान, योग और आत्मविचार के द्वारा साधक जब इस स्थिति को प्राप्त करता है, तभी वह युक्त, स्थिर, और पूर्णतया मुक्त कहलाता है।

यही सच्चा योग है — जब आत्मा स्वयं में तृप्त और अचल हो जाए।

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