मूल श्लोक – 24
सङ्कल्पप्रभवान्कामान्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥24॥
शब्दार्थ
सङ्कल्प-प्रभवान् — संकल्पों (कल्पनाओं, विचारों) से उत्पन्न
कामान् — इच्छाओं को, वासनाओं को
त्यक्त्वा — त्यागकर
सर्वान् अशेषतः — सभी को पूरी तरह से
मनसा एव — केवल मन के द्वारा
इन्द्रिय-ग्रामम् — इन्द्रियों के समूह को (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ)
विनियम्य — नियंत्रित करके, संयमित करके
समन्ततः — हर ओर से, सभी दिशाओं से
संसार के चिन्तन से उठने वाली सभी इच्छाओं का पूर्ण रूप से त्याग कर हमें मन द्वारा इन्द्रियों पर सभी ओर से अंकुश लगाना चाहिए

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यानयोग के अभ्यास के लिए आवश्यक दो मुख्य शर्तों का वर्णन करते हैं —
(1) कामनाओं का पूर्ण परित्याग, और
(2) इन्द्रियों का सर्वांगीण संयम।
🔹 सङ्कल्पप्रभवान्कामान्
मन जब किसी विषय की कल्पना करता है — वह चाहे वस्तु हो, व्यक्ति हो, या अनुभव — तो उसमें एक कामना उत्पन्न होती है।
इन संकल्पों (कल्पनाओं, विचारों) से ही कामनाओं का जन्म होता है।
जब तक संकल्प चलता रहेगा, कामना भी बनी रहेगी।
इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं — इन कामनाओं का जड़ से ही अशेषतः त्याग कर दो।
🔹 मनसा एव इन्द्रियग्रामं विनियम्य
यह कार्य शरीर से नहीं, बल्कि मन से करना है — इन्द्रियाँ मन के अधीन होनी चाहिए, न कि मन इन्द्रियों के।
इन्द्रियों को समन्ततः — हर दिशा से, हर क्षेत्र में — संयमित करना ही योग का आरंभिक चरण है।
यह अभ्यास साधक को धीरे-धीरे भीतर की ओर खींचता है, जहाँ आत्मा का साक्षात्कार होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- कामनाएँ बाहर से नहीं आतीं, वे मन के भीतर से जन्मती हैं — विचारों और कल्पनाओं से।
- यदि कामनाओं को केवल दबाया जाए, तो वे भीतर ही कुंठित हो जाती हैं। उन्हें जड़ से समाप्त करने के लिए संकल्पों की शुद्धि आवश्यक है।
- इन्द्रियाँ तब तक चंचल बनी रहती हैं जब तक मन उन्हें दिशा नहीं देता — इसलिए श्रीकृष्ण मन के द्वारा इन्द्रिय संयम की बात करते हैं।
- ध्यानयोग का मार्ग तभी प्रशस्त होता है जब साधक वासनाओं से खाली होकर, आत्मा में स्थिर होने को तैयार हो जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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संकल्प | मानसिक योजनाएँ, इच्छाएँ, कल्पनाएँ |
काम | उन कल्पनाओं से उत्पन्न वासना, लालसा |
अशेषतः त्याग | पूर्ण त्याग, जिसमें कुछ भी शेष न रहे |
इन्द्रियग्राम | पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (नेत्र, कान, आदि) और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पाँव, आदि) |
समन्ततः विनियम्य | चतुर्दिक — संपूर्ण नियंत्रण, केवल एक-दो इन्द्रियों का नहीं, सम्पूर्ण का संयम |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इच्छाओं का त्याग उनकी जड़ को समझे बिना नहीं होता — उनकी उत्पत्ति संकल्प से होती है।
- जो साधक अपने विचारों को देख पाता है, वही धीरे-धीरे उनकी शक्ति को नष्ट कर सकता है।
- इन्द्रिय संयम योग का अंग नहीं, मूलाधार है — इसके बिना कोई भी साधना सफल नहीं होती।
- मन को इन्द्रियों का स्वामी बनाना ही सच्ची साधना है।
- यह केवल बाह्य संयम नहीं, बल्कि आंतरिक अनुशासन है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी इच्छाएँ मेरे ही संकल्पों से उपजी हैं?
- क्या मैं अपने विचारों की उत्पत्ति को देख पाता हूँ, या उनके प्रवाह में बह जाता हूँ?
- क्या मैं इन्द्रियों के पीछे भागता हूँ, या उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास करता हूँ?
- क्या मेरा मन साधना में सहयोगी है या भटकाव का कारण?
- क्या मैंने कामनाओं को दबाया है, या सचमुच त्यागने का प्रयास किया है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में योग के भीतर के अनुशासन को बताते हैं —
ध्यान की सफलता केवल बैठने और आँखें बंद करने से नहीं होती,
बल्कि —
“कामनाओं के जड़मूल को उखाड़कर,
और इन्द्रियों को मन द्वारा पूर्णतः नियंत्रित करने से होती है।”
साधक जब अपनी संकल्पनाओं को समझकर, और इन्द्रिय-विकारों पर नियंत्रण पाकर आत्मा की ओर यात्रा करता है,
तभी वह योग के मार्ग पर सच्ची प्रगति करता है।
सच्चा योग बाहर की शांति नहीं, भीतर की विजय है — संकल्पों और इन्द्रियों पर।