मूल श्लोक – 38
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥38॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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कच्चित् | क्या कहीं ऐसा तो नहीं |
नो | नहीं |
उभय-विभ्रष्टः | दोनों मार्गों से भ्रष्ट (सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों से च्युत) |
छिन्न-अभ्रम् | कटे हुए मेघ के समान |
इव | जैसे |
नश्यति | नष्ट हो जाता है |
अप्रतिष्ठः | बिना आधार के, अस्थिर |
महाबाहो | हे महाबाहु! (कृष्ण का संबोधन) |
विमूढः | मोहित, भ्रमित |
ब्रह्मणः पथि | ब्रह्म की ओर जाने वाले मार्ग में |
हे महाबाहु कृष्ण! क्या योग से पथ भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं से वंचित नहीं होता और छिन्न-भिन्न बादलों की भाँति नष्ट नहीं हो जाता जिसके परिणामस्वरूप वह किसी भी लोक में स्थान नहीं पाता?

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में अर्जुन की चिंता और गहरी हो जाती है। पिछले श्लोक (6.37) में उन्होंने योग से च्युत हुए व्यक्ति की गति पूछी थी, अब वे उस साधक के अंत की आशंका प्रकट करते हैं। अर्जुन यह समझना चाहते हैं कि जो साधक न तो सांसारिक सुखों को पूरी तरह अपनाता है, न ही योग की सिद्धि प्राप्त करता है — उसका क्या होता है?
“उभयविभ्रष्टः” — वह जो न तो संसार में रम पाता है, न ही आत्मज्ञान में लीन हो पाता है।
“छिन्नाभ्रमिव” — जैसे आकाश में उड़ता हुआ कोई बादल अचानक हवा से कट जाए और दिशा व गति दोनों खो दे, वैसा यह व्यक्ति दिशाहीन हो जाता है।
“अप्रतिष्ठः” — ऐसे व्यक्ति का कोई आध्यात्मिक या सांसारिक आधार नहीं रहता।
“विमूढः” — भ्रमित और मोहग्रस्त।
“ब्रह्मणः पथि” — अर्थात ब्रह्म की ओर ले जाने वाला मार्ग, जो अब अस्पष्ट हो गया है।
यह चिंता उन साधकों की है जो जीवन में आध्यात्मिक पथ पर चलने का प्रयास करते हैं, परंतु बीच में मार्ग से भटक जाते हैं। अर्जुन यह जानना चाहते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि ये प्रयास एक शून्य में जाकर समाप्त हो जाए।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक गीता के सबसे मानवीय क्षणों में से एक को दर्शाता है। यहाँ अर्जुन का प्रश्न आध्यात्मिक विफलता के अंतिम परिणाम को लेकर है।
किसी भी आध्यात्मिक साधक के मन में यह प्रश्न उठ सकता है:
“अगर मैं अपने आध्यात्मिक पथ में पूरी तरह सफल नहीं हो पाया, तो क्या मेरी आत्मा खो जाएगी?”
यह शंका केवल अर्जुन की नहीं है, बल्कि हर साधक की है। गीता इसे गंभीरता से स्वीकार करती है और अगले श्लोकों में इसका उत्तर भी देती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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छिन्न-अभ्रम् | वह साधक जो दिशा-हीन हो गया हो |
उभयविभ्रष्टः | वह जो संसार और साधना दोनों से अलग हो गया |
अप्रतिष्ठः | आधारहीनता, जीवन में स्थिरता का अभाव |
विमूढः | भ्रम और मोह में पड़ा हुआ साधक |
ब्रह्मणः पथि | आत्मज्ञान की ओर जाने वाला मार्ग |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- यह श्लोक हमें बताता है कि साधना के मार्ग में गिरने का भय हर साधक के मन में हो सकता है।
- यह स्वीकार करता है कि यदि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में असफल होता है, तो वह कहीं भी टिक नहीं पाता — न संसार में न आत्मा में।
- हमें आत्मिक प्रयासों को निरंतर बनाए रखना चाहिए, क्योंकि मार्ग में रुकना या भटकना हमें शून्यता की ओर ले जा सकता है।
- परन्तु यह चिंता भी आवश्यक है, क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि साधक अपनी साधना के परिणामों को लेकर ईमानदार और गंभीर है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी साधना स्थिर है, या मैं बीच में मार्ग से भटक रहा हूँ?
- क्या मैं कभी इस भय से जूझा हूँ कि मैं न तो सांसारिक रूप से सफल हो पाऊँगा, न आध्यात्मिक रूप से?
- क्या मैंने जीवन में कोई दिशा सुनिश्चित की है या छिन्न अभ्र की तरह भटक रहा हूँ?
- क्या मेरे भीतर ब्रह्म की ओर जाने की तीव्र आकांक्षा है?
- क्या मेरे प्रश्न मेरी श्रद्धा की गहराई को दर्शाते हैं या मेरे मोह की?
निष्कर्ष
यह श्लोक अर्जुन की गहरी आध्यात्मिक संवेदनशीलता को प्रकट करता है। वह केवल सफल योगियों की चिंता नहीं कर रहे, बल्कि उन लोगों की भी जो प्रयासरत होते हैं लेकिन पूर्णता तक नहीं पहुँच पाते।
क्या उनकी यात्रा व्यर्थ हो जाती है?
क्या वे ब्रह्ममार्ग से कटकर अस्तित्वहीन हो जाते हैं?
यह श्लोक हमें आत्मविश्लेषण के लिए आमंत्रित करता है — और गीता आगे चलकर इस शंका का समाधान देती है कि सच्ची श्रद्धा और आरंभिक प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाते।