मूल श्लोक – 4
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥4॥
शब्दार्थ
यदा — जब
हि — निश्चय ही
न — नहीं
इन्द्रियार्थेषु — इन्द्रियों के विषयों में
कर्मसु — कर्मों में, कार्यों में
अनुषज्जते — आसक्त होता है, लिप्त होता है
सर्वसङ्कल्प — सभी इच्छाएँ, कामनाएँ, मानसिक योजनाएँ
संन्यासी — त्याग करने वाला
योगारूढः — योग में स्थित, योग की उच्च अवस्था को प्राप्त
तदा — तब
उच्यते — कहा जाता है, माना जाता है
जब कोई मनुष्य न तो इन्द्रिय विषयों में और न ही कर्मों के अनुपालन में आसक्त होता है और कर्म फलों की सभी इच्छाओं का त्याग करने के कारण ऐसे मनुष्य को योग मार्ग में आरूढ़ कहा जाता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योग की परिपक्व अवस्था की पहचान बताते हैं।
योग का आरंभ त्याग से होता है और पूर्णता योगारूढ़ अवस्था में होती है।
योगारूढ़ वह कहलाता है:
- जो इन्द्रियों के विषयों में आकर्षित नहीं होता।
- कर्म तो करता है, लेकिन उनमें लिप्त नहीं होता।
- जिसने सर्वसंकल्प यानी सारी इच्छाओं, कामनाओं, अपेक्षाओं को त्याग दिया है।
यह अवस्था केवल बाह्य संयम से नहीं, बल्कि आंतरिक वैराग्य और विवेक से आती है।
जब कोई व्यक्ति कर्तापन के अहंकार और भोग की इच्छा को त्याग देता है, तब वह सच्चे अर्थों में योग की उच्च स्थिति को प्राप्त करता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक योग को केवल क्रिया या आसन न मानकर आध्यात्मिक स्थिति के रूप में प्रस्तुत करता है।
- संकल्प ही संसार का मूल बंधन है।
- इन्द्रिय विषयों से अनासक्ति और फल की अपेक्षा का त्याग — यही योग की कसौटी है।
- जब मन स्थिर हो जाता है, तब आत्मा का प्रभु से साक्षात्कार सहज हो जाता है।
इस श्लोक के अनुसार, योग कोई आरंभिक साधना नहीं, बल्कि चरम स्थिति है — जहाँ साधक परमात्मा में स्थित हो जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
इन्द्रियार्थ | भोग-विलास, विषय वासना, बाह्य आकर्षण |
कर्म | संसार में किया जाने वाला कार्य |
अनुषज्जते | चिपक जाना, मोह और आसक्ति |
संकल्प | मन की योजनाएँ, इच्छाएँ, वासनाएँ |
संन्यासी | त्यागी, जो आत्मा की ओर उन्मुख हो |
योगारूढ़ | योग में पूर्ण रूप से स्थित आत्मा |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- योग का अंतिम लक्ष्य है असक्ति, न कि केवल क्रिया या तपस्या।
- कर्म करना धर्म है, लेकिन उसमें फँस जाना मोह है।
- आत्मा की गति तब होती है जब मन सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाए।
- केवल वही सच्चा योगी है जो इन्द्रिय विषयों में राग नहीं रखता।
- जीवन का हर कर्म तब ही शुद्ध होता है जब वह फल की अपेक्षा से मुक्त हो।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं इन्द्रिय विषयों के प्रति अब भी आकर्षित हूँ?
- क्या मेरे कर्म अपेक्षाओं और परिणामों के मोह से प्रेरित हैं?
- क्या मैं वास्तव में इच्छाओं का त्याग कर सका हूँ?
- क्या मैंने अपने जीवन में योग की अनुभूति की है, या केवल अभ्यास किया है?
- क्या मेरे भीतर का संन्यास बाहरी संन्यास से गहरा है?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें बताता है कि:
योग केवल साधना नहीं, एक स्थिति है — जहाँ मन विषयों से मुक्त, कर्मों में निष्काम और आत्मा प्रभु से एकत्व को प्राप्त होती है।
जब हम इन्द्रियों की दौड़ से हट जाते हैं, कर्मों की चिंता छोड़ देते हैं और संकल्पों का त्याग कर देते हैं — तब हम योगारूढ़ कहलाते हैं।
वहीं से आरंभ होता है आत्मिक आनंद, पूर्ण शांति, और परमात्मा से एकत्व का अनुभव — जो गीता का परम उद्देश्य है।
यह श्लोक आत्मनियंत्रण, संकल्पत्याग और योगसिद्धि का चरम संदेश है।