Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 45

मूल श्लोक – 45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दअर्थ
प्रयत्नात्प्रयास से, सतत प्रयास द्वारा
यतमानःप्रयत्नशील, जो यत्न करता है
तुपरंतु, लेकिन (बल प्रयोग के लिए)
योगीसाधक, योगमार्ग का अनुयायी
संशुद्धकिल्बिषःसम्पूर्णतः पापों से शुद्ध हुआ
अनेकजन्मसंसिद्धःअनेक जन्मों में साधना द्वारा सिद्ध
ततःतत्पश्चात, इसके परिणामस्वरूप
यातिप्राप्त करता है, पहुँचता है
पराम् गतिम्परम अवस्था, परम गति, मोक्ष या आत्मसाक्षात्कार

पिछले कई जन्मों में संचित पुण्यकर्मों के साथ जब ये योगी आध्यात्मिक मार्ग में आगे उन्नति करने हेतु निष्ठापूर्वक प्रयत्न में लीन रहते हैं तब वे सांसारिक कामनाओं से शुद्ध हो जाते हैं और इसी जीवन में पूर्णताः प्राप्त कर लेते हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि आध्यात्मिक मार्ग कोई एक जन्म की यात्रा नहीं है — यह अनेक जन्मों की निरंतर साधना से पूर्ण होती है।

  • “प्रयत्नात् यतमानः” — जो योगी अपने साधन में लगातार प्रयत्न करता है।
  • “संशुद्धकिल्बिषः” — वह निरंतर साधना द्वारा अपने पापों और दोषों से मुक्त हो जाता है।
    यह केवल बाहरी नियमों से नहीं, बल्कि अंतःकरण की शुद्धि से होता है।
  • “अनेकजन्मसंसिद्धः” — यह सिद्धि एक जन्म से नहीं, अनेक जन्मों की साधना का परिणाम होती है।
  • “परां गतिम् याति” — ऐसा योगी अंततः मोक्ष या ब्रह्मसाक्षात्कार को प्राप्त करता है।

इस प्रकार यह श्लोक यह बताता है कि सत्य की खोज एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है, और ईश्वर की ओर किया गया हर छोटा प्रयास भी सुरक्षित रहता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक पुनर्जन्म और आध्यात्मिक प्रगति की निरंतरता की पुष्टि करता है।
  • हर साधक अपने पूर्व जन्म के प्रयासों के आधार पर वर्तमान जन्म में आगे बढ़ता है।
  • अंततः आत्मा का लक्ष्य — परम गति, यानी परमात्मा में लीनता या मोक्ष है — और वह तब प्राप्त होती है जब पाप-कल्मषों से शुद्ध होकर, आत्मा साधना में स्थिर हो जाती है।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
प्रयत्नआत्मा का जागरण और दृढ़ संकल्प
यतमानःसाधक जो कभी प्रयास छोड़ता नहीं
संशुद्धकिल्बिषःअहंकार, राग-द्वेष आदि से मुक्त हुआ चित्त
अनेकजन्मसंसिद्धःआध्यात्मिक विकास की शृंखला
पराम् गतिम्मोक्ष, पूर्ण आत्मज्ञान, ब्रह्मलीनता

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • असफलता स्थायी नहीं है, प्रयास स्थायी होना चाहिए।
  • जो साधक निरंतर प्रयास करते हैं, वे धीरे-धीरे अपने आंतरिक दोषों को शुद्ध करते हैं।
  • ईश्वर और आत्मज्ञान की प्राप्ति अनेक जन्मों के अभ्यास और यत्न से ही संभव है।
  • इस श्लोक का मर्म यही है — “छोड़ना मत, चलते रहो।”

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं अपनी साधना में लगातार प्रयत्नशील हूँ?
  2. क्या मैं अपनी आंतरिक अशुद्धियों को पहचानकर उन्हें शुद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ?
  3. क्या मुझे यह अनुभव होता है कि मेरी आत्मा किसी गहरे लक्ष्य की ओर बढ़ रही है?
  4. क्या मैं विफलताओं से टूटता हूँ या उन्हें अगले प्रयास की सीढ़ी बनाता हूँ?
  5. क्या मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मोक्ष एक दीर्घ यात्रा है, जो अनेक जन्मों से जुड़ी है?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में एक अद्भुत आश्वासन देते हैं —
“तुम्हारा हर प्रयास संचित होता है, और अंततः वह तुम्हें परम लक्ष्य तक पहुँचा देता है।”

यह श्लोक केवल साधकों के लिए नहीं, बल्कि हर उस आत्मा के लिए है जो कभी इस मार्ग पर चला हो, गिरा हो, थमा हो, और फिर उठने की आशा रखता हो।

सतत प्रयास, आंतरिक शुद्धि और भगवान पर विश्वास — यही परम गति की ओर यात्रा का मार्ग है।
और वह गति निश्चित है — बस एक बात ज़रूरी है:
“प्रयत्न छोड़ना मत!”

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