मूल श्लोक – 47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
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योगिनाम् | योगियों में, साधकों में |
अपि | भी |
सर्वेषाम् | सभी में |
मत्-गतेन | मुझमें स्थित |
अन्तः-आत्मना | आंतरिक आत्मा द्वारा, पूरे हृदय से |
श्रद्धावान् | श्रद्धायुक्त, आस्था से भरपूर |
भजते | भजन करता है, प्रेमपूर्वक भक्ति करता है |
यः | जो |
माम् | मुझे (भगवान को) |
सः | वह |
मे | मेरी दृष्टि में |
युक्ततमः | सर्वोत्तम रूप से युक्त, सबसे श्रेष्ठ योगी |
मतः | माने जाने वाला, मेरी दृष्टि में |
सभी योगियों में से जिनका मन सदैव मुझ में तल्लीन रहता है और जो अगाध श्रद्धा से मेरी भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ।

विस्तृत भावार्थ
यह अध्याय का अंतिम श्लोक है और भगवान श्रीकृष्ण यहाँ योग की चरम स्थिति को स्पष्ट करते हैं।
सभी योगियों में चाहे वह कर्मयोगी हो, ज्ञानयोगी हो या ध्यानयोगी — भगवान की भक्ति में तल्लीन वह योगी,
जो मन, हृदय और आत्मा से ईश्वर को समर्पित है, सबसे श्रेष्ठ माना गया है।
- “मद्गतेनान्तरात्मना” – जिसका अंतःकरण, आत्मा और चेतना परमात्मा में स्थित हो गई है।
- “श्रद्धावान्” – जो केवल भावना से नहीं, बल्कि श्रद्धा और आस्था से पूर्ण भक्ति करता है।
- “भजते यो मां” – जो मेरी उपासना करता है, प्रेमपूर्वक स्मरण करता है।
ऐसा व्यक्ति भगवान की दृष्टि में “युक्ततमः” — अर्थात पूर्ण रूप से योगयुक्त, सबसे उत्कृष्ट साधक होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- भगवान श्रीकृष्ण यहाँ यह स्पष्ट कर देते हैं कि सभी साधनों में भक्ति सबसे श्रेष्ठ साधन है, क्योंकि यह हृदय से जुड़ा है।
- ध्यान, ज्ञान और कर्म सभी आवश्यक हैं, पर जब उनमें प्रेम, श्रद्धा और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण जुड़ जाता है — तभी वे पूर्ण होते हैं।
- यह श्लोक भक्ति को योग की चरम अवस्था घोषित करता है — जहाँ साधक और ईश्वर के बीच एकत्व हो जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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योगिनाम् | साधक, आत्मा की यात्रा पर निकले लोग |
अन्तःआत्मना | भीतर से जुड़े हुए, आंतरिक स्तर पर समर्पित |
श्रद्धावान् | विश्वास और प्रेम से युक्त |
भजते | न केवल पूजा, बल्कि स्नेहपूर्ण संबंध |
युक्ततमः | आत्मा और परमात्मा का परम मिलन, पूर्ण एकता |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्चा योगी वह है जो ईश्वर से प्रेम करता है, केवल तर्क नहीं करता।
- योग का लक्ष्य केवल मानसिक नियंत्रण नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ प्रेममय संबंध स्थापित करना है।
- अंतःकरण से समर्पित भक्ति — वही साधना की पराकाष्ठा है।
- श्रद्धा रहित साधना केवल अनुशासन है, श्रद्धा युक्त साधना योग और भक्ति दोनों का समन्वय है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी साधना केवल मानसिक अभ्यास है या उसमें श्रद्धा और प्रेम भी है?
- क्या मैं केवल ज्ञान या ध्यान से जुड़ा हूँ या मेरे भीतर भगवान के प्रति प्रेम भी है?
- क्या मेरी आत्मा भीतर से परमात्मा की ओर खिंचती है?
- क्या मैं भगवान से केवल माँगता हूँ या प्रेमपूर्वक भजता भी हूँ?
- क्या मैं योग को केवल साधन मानता हूँ या ईश्वर के साथ संबंध जोड़ने का माध्यम?
निष्कर्ष
यह श्लोक भगवद्गीता के छठे अध्याय की चरम परिणति है।
योग का उद्देश्य केवल आत्मसंयम नहीं — ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भक्ति है।
सभी योगियों में सबसे श्रेष्ठ वही है, जो भगवान के प्रति श्रद्धा से भरकर, अंतःकरण से उन्हें भजता है।
यह श्लोक भक्ति को योग का उच्चतम स्वरूप मानता है और सिखाता है —
“जहाँ हृदय में श्रद्धा है, वहाँ सच्चा योग है।”
“प्रेम से भजो — वही सर्वोच्च योग है।”