Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 8

मूल श्लोक – 8

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥8॥

शब्दार्थ

ज्ञान — शास्त्रों से प्राप्त तात्त्विक या बौद्धिक ज्ञान
विज्ञान — आत्मसाक्षात्कार पर आधारित प्रत्यक्ष अनुभव
तृप्तात्मा — जिसकी आत्मा पूर्ण रूप से संतुष्ट है
कूटस्थः — अचल, स्थिर, अपरिवर्तनशील
विजितेन्द्रियः — जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है
युक्तः — समभाव में स्थित, योगयुक्त
इति — इस प्रकार
उच्यते — कहा जाता है, समझा जाता है
योगी — जो योग में स्थिर है
सम — समभाव वाला
लोष्ट — मिट्टी
अश्म — पत्थर
काञ्चनः — सोना

वे योगी जो ज्ञान और विवेक से संतुष्ट होते हैं और जो इन्द्रियों पर विजय पा लेते हैं, वे सभी परिस्थितियों में अविचलित रहते हैं। वे धूल, पत्थर और सोने को एक समान देखते हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में श्रीकृष्ण एक सच्चे योगी के लक्षण बताते हैं। वह योगी केवल शास्त्र पढ़कर ज्ञानी नहीं है, बल्कि उसने उन सिद्धांतों को जीवन में उतारकर आत्मिक अनुभव (विज्ञान) भी प्राप्त किया है। ऐसा व्यक्ति भीतर से पूरी तरह संतुष्ट होता है — वह किसी भी बाह्य वस्तु या परिस्थिति से संतोष पाने की आशा नहीं करता।

कूटस्थ शब्द से तात्पर्य है — स्थिर, अचल, और परिवर्तन से रहित। जो साधक इस स्थिति तक पहुँच चुका होता है, उसका मन संसार के सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान में डगमग नहीं होता।

इसके अतिरिक्त, उसकी इन्द्रियाँ भी वश में होती हैं — अर्थात् वह उन्हें अपने विवेक से नियंत्रित करता है, वे उसे नियंत्रित नहीं करतीं।

और अंततः, वह व्यक्ति सम-दृष्टि को प्राप्त कर लेता है। उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना — इन तीनों में कोई अंतर नहीं रह जाता। यह दृष्टि उसके वैराग्य और संतुलन का प्रमाण है।

ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में “युक्त” कहलाता है — अर्थात् जो योग से जुड़ा है, और उसमें स्थिर है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक गीता के योगदर्शन का एक सार है, जिसमें योग को केवल क्रियात्मक अभ्यास न मानकर, एक मनोवैज्ञानिक और आत्मिक स्थिति के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

  • ज्ञान (theory) और विज्ञान (experience) का संतुलन — योग की पहली सीढ़ी है। केवल ज्ञान से संतोष नहीं होता, लेकिन अनुभव के साथ वह पूर्णता प्राप्त करता है।
  • जब आत्मा भीतर से तृप्त हो जाती है, तब उसे बाह्य वस्तुओं की आवश्यकता नहीं रह जाती।
  • कूटस्थ स्थिति का अर्थ है — स्थिर आत्मा, जो प्रकृति के गुणों के प्रभाव में नहीं आती। यह स्थिति ‘स्थितप्रज्ञ’ की तरह है।
  • इन्द्रिय-विजय का मतलब यह नहीं कि इन्द्रियों का दमन हो, बल्कि यह कि साधक उनका प्रयोग संयमित और विवेकपूर्वक करता है।
  • “समलोष्टाश्मकाञ्चनः” दृष्टि केवल वस्तुओं में नहीं, भावनाओं और व्यक्तियों में भी समानता लाती है। यह द्वैत से अद्वैत की यात्रा है।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
ज्ञानबौद्धिक ज्ञान, सत्य को समझने की क्षमता
विज्ञानआत्म-साक्षात्कार, प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा प्राप्त विवेक
तृप्तात्मासंतोष प्राप्त आत्मा, जो कुछ और चाहती नहीं
कूटस्थअविचल स्थिति, जो संसार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होती
विजितेन्द्रियःसंयमशील, आत्म-नियंत्रित व्यक्ति
समलोष्टाश्मकाञ्चनःवस्तुओं में भेद न करना, राग-द्वेष से परे रहना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • केवल जानकारी पर्याप्त नहीं है, अनुभव से युक्त ज्ञान ही स्थायी होता है।
  • बाह्य भिन्नताओं (जैसे – वस्तुओं की कीमत या महत्व) को समान दृष्टि से देखने का अभ्यास ही मोक्ष की ओर ले जाता है।
  • संतोष — योग की नींव है। जब आत्मा तृप्त हो जाती है, तब इच्छा, लोभ और क्रोध स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
  • स्थिर चित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान, सेवा, और वैराग्य में टिक सकता है।
  • इन्द्रियों को जीतना तपस्या नहीं, बल्कि आवश्यक योग है।
  • वस्तुओं के मूल्य में समता का दृष्टिकोण आत्मा को स्वतंत्र बनाता है — यह दृष्टिकोण ही सच्चे वैराग्य की निशानी है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मेरा ज्ञान केवल किताबों तक सीमित है, या मैंने उसका अनुभव भी किया है?
  2. क्या मैं अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करने में सक्षम हूँ?
  3. क्या मैं बाह्य वस्तुओं के मूल्य से प्रभावित होता हूँ, या उनमें समभाव रखता हूँ?
  4. क्या मेरी आत्मा भीतर से संतुष्ट है, या मैं किसी न किसी चीज़ की तलाश में रहता हूँ?
  5. क्या मैं संसार की विविधताओं में एकता देख पाता हूँ?
  6. क्या मैं कूटस्थ अवस्था में हूँ — स्थिर, अचल, और अविचल?
  7. क्या मेरी दृष्टि मिट्टी, पत्थर और सोना में भी समान रहती है, या उनमें विशेषता का भेदभाव करता हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक उस परम योगी की पहचान कराता है जो ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण है, जिसकी आत्मा तृप्त है, इन्द्रियाँ नियंत्रित हैं, और जो वस्तुओं में भेद नहीं करता।

योग केवल आसन या ध्यान की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जो हमें भीतर से शांत, संतुलित और मुक्त बनाती है।

जब मनुष्य ज्ञान से सत्य को समझता है, विज्ञान से उसे अनुभव करता है, और फिर संतोष, समता, संयम, और स्थिरता से जीवन जीता है — तब वह योग में स्थित होता है।

“समता” ही वह कुंजी है जो उसे सभी द्वैतों से मुक्त करती है।
मिट्टी, पत्थर, और सोना — तीनों जब एक जैसे लगने लगें, तब न राग रहेगा, न द्वेष — बस शुद्ध चित्त और स्वतंत्र आत्मा होगी।

वह अवस्था ही सच्चा योग है। वही मुक्ति है।

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