मूल श्लोक – 10
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
---|---|
बीजम् | बीज, कारण, मूल स्रोत |
माम् | मुझे (भगवान श्रीकृष्ण को) |
सर्वभूतानाम् | समस्त प्राणियों का, सभी जीवों का |
विद्धि | जान लो, समझ लो |
पार्थ | हे पार्थ! (अर्जुन) |
सनातनम् | शाश्वत, नित्य, अनादि |
बुद्धिः | बुद्धि, विवेक |
बुद्धिमताम् | बुद्धिमानों की |
अस्मि | मैं हूँ |
तेजः | तेज, शक्ति |
तेजस्विनाम् | तेजस्वियों की, बलवानों की |
अहम् | मैं (भगवान) |
हे अर्जुन! यह समझो कि मैं सभी प्राणियों का आदि बीज हूँ। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ?

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अपने व्यापक स्वरूप और प्रभाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं:
- “बीजं मां सर्वभूतानां” – इस सृष्टि के समस्त जीवधारियों का मूल कारण मैं हूँ।
जैसे बीज से वृक्ष, वैसे ही भगवान से समस्त सृष्टि। - “सनातनम्” – यह बीज कोई साधारण कारण नहीं, बल्कि अनादि, अनंत, शाश्वत बीज है —
समय के पार, परिवर्तन से रहित, चिरस्थायी। - “बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि” – जो बुद्धिमान हैं, जिनके पास विवेक और तर्क है —
वह बुद्धि भी भगवान से ही प्राप्त होती है। - “तेजस्तेजस्विनामहम्” – तेज, ओज, तेजस्विता, आत्मबल, प्रभाव —
जो तेजस्वी हैं, उनका तेज भी भगवान का ही अंश है।
अर्थात — सृजन का मूल, विवेक का स्रोत और ऊर्जा का केंद्र – भगवान ही हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक सृजन, चेतना और ऊर्जा के आध्यात्मिक स्रोत को ईश्वर में प्रतिष्ठित करता है।
- संसार में कुछ भी स्वतः नहीं है — हर गुण, हर जीवन, हर शक्ति – परमात्मा से उत्पन्न है।
- यह दृष्टिकोण अहंकार को विनम्रता में बदलता है, क्योंकि जो कुछ भी मेरे पास है — वह “मेरा” नहीं, “उनका” है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द/तत्त्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
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बीज | कारण, मूल, सृजन शक्ति |
सनातनम् | शाश्वत सत्य, जो कभी नष्ट नहीं होता |
बुद्धिः | विवेक, सत्य को पहचानने की शक्ति |
तेजः | आंतरिक शक्ति, आत्मप्रकाश, प्रेरणा |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- यदि मैं हूँ, तो ईश्वर के बीज से उत्पन्न हूँ — मैं उनकी इच्छा से ही जीवित हूँ।
- मेरी बुद्धि और शक्ति का स्रोत भगवान हैं, इसलिए उनका अभिमान नहीं, आभार होना चाहिए।
- यह ज्ञान नम्रता और आत्मनिरीक्षण को जन्म देता है — मैं अकेले कुछ नहीं, परमात्मा के अंश से ही कुछ हूँ।
- जब मैं दूसरों में बुद्धि और तेज देखता हूँ, तब उसमें ईश्वर की झलक पहचाननी चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं स्वयं को भगवान के बीज से उत्पन्न मानता हूँ?
- क्या मैं अपनी बुद्धि का उपयोग भगवान की इच्छा के अनुरूप करता हूँ?
- क्या मेरे भीतर का तेज दूसरों को आलोकित करता है या अहंकार बढ़ाता है?
- क्या मैं दूसरों की प्रतिभा में भी ईश्वर का अंश देख पाता हूँ?
- क्या मैं अपने अस्तित्व के लिए भगवान को मूल कारण स्वीकार करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन को और हम सभी को यह बोध कराते हैं कि –
“मैं केवल किसी मंदिर में नहीं —
मैं तुम्हारे जीवन के मूल में,
तुम्हारी बुद्धि में,
तुम्हारी शक्ति में,
तुम्हारे अस्तित्व के बीज में हूँ।”
यह श्लोक केवल एक जानकारी नहीं, आत्मबोध का आह्वान है।
“तू जो कुछ है, ईश्वर के बीज से उत्पन्न है।”
“तू बुद्धिमान है, क्योंकि ईश्वर ने बुद्धि दी।”
“तू तेजस्वी है, क्योंकि वह परम तेज तुझमें है।”
– यही इस श्लोक का दिव्य संदेश है।