मूल श्लोक – 12
ये चैव सात्त्विका भावाः राजसाः तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
---|---|
ये | जो भी |
च एव | और भी |
सात्त्विकाः भावाः | सात्त्विक प्रवृत्तियाँ, शुद्ध और सद्गुणी भाव |
राजसाः | रजोगुण से उत्पन्न भाव (क्रिया, लालसा आदि) |
तामसाः | तमोगुण से उत्पन्न भाव (अज्ञान, आलस्य आदि) |
च | और |
मत्तः | मुझसे, मेरे द्वारा |
एव | ही, वास्तव में |
इति | इस प्रकार |
तान् विद्धि | उन्हें जानो |
न | नहीं |
तु | किंतु |
अहम् | मैं (भगवान श्रीकृष्ण) |
तेषु | उन गुणों में |
ते मयि | वे सब मुझमें हैं, मेरे अधीन हैं |
तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मेरी शक्ति से ही प्रकट होते हैं। ये सब मुझमें हैं लेकिन मैं इनसे परे हूँ।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण त्रिगुणात्मक प्रकृति — सत्त्व, रज, तम — और उनकी उत्पत्ति के विषय में गहराई से उद्घाटन कर रहे हैं।
- सात्त्विक भाव — जैसे ज्ञान, शांति, संयम, करुणा, भक्ति आदि।
- राजसिक भाव — जैसे इच्छाएँ, क्रिया, कामना, प्रतियोगिता, लोभ।
- तामसिक भाव — जैसे आलस्य, अज्ञान, मोह, हिंसा, क्रूरता।
भगवान कहते हैं कि ये सभी भाव मेरे द्वारा ही प्रकृति के माध्यम से उत्पन्न होते हैं —
परंतु मैं इनमें नहीं रहता।
यह स्पष्ट करता है कि —
- ईश्वर इन गुणों का कारण हैं, लेकिन इनमें लिप्त नहीं हैं।
- वे निर्गुण होते हुए भी सगुण प्रकृति की उत्पत्ति के हेतु हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक हमें सिखाता है कि त्रिगुण — सत्त्व, रज, तम — प्रकृति के गुण हैं, न कि ईश्वर के।
- भगवान स्वयं इन गुणों से परे (त्रिगुणातीत) हैं।
- वह निर्लेप, निरपेक्ष, शुद्ध चेतन सत्ता हैं जो प्रकृति को चलाते हैं पर उसमें बंधते नहीं।
- यह अद्वैत और सांख्य दर्शन दोनों का समन्वयपूर्ण बिंदु है।
प्रतीकात्मक अर्थ
तत्त्व / शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
सात्त्विक भाव | आत्मा की ओर उन्नति, प्रकाश |
राजसिक भाव | संसार की ओर आकर्षण, गति |
तामसिक भाव | अंधकार, अवरोध, जड़ता |
मत्त एवेति | भगवान ही कारण हैं — शक्ति के स्रोत |
न तेषु अहम् | ईश्वर स्वयं निर्लिप्त हैं, बंधनरहित हैं |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हम अपने भीतर जो भी गुण या प्रवृत्ति देखते हैं — वह प्रकृति से उत्पन्न है, पर प्रेरणा परमात्मा से।
- साधक को समझना चाहिए कि ईश्वर सबका कारण हैं, पर वे कर्म और गुणों के प्रभाव से अछूते रहते हैं।
- यदि हमें भगवान तक पहुँचना है, तो हमें त्रिगुणों से ऊपर उठकर ‘गुणातीत’ बनना होगा।
- संसार में रहकर कर्म करते हुए भी निर्लिप्तता का अभ्यास आवश्यक है — जैसे भगवान स्वयं करते हैं।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने भीतर के भावों को त्रिगुणों की दृष्टि से समझता हूँ?
- क्या मैं ईश्वर को गुणों में खोजता हूँ या उनके पार अनुभव करता हूँ?
- क्या मैं किसी गुण में अटक कर स्वयं को सीमित कर रहा हूँ?
- क्या मैं समझता हूँ कि संसार के सारे गुण-भाव भगवान से उत्पन्न होते हैं लेकिन भगवान उनमें बंधते नहीं?
- क्या मैं भी कर्म करके उनमें न फँसने की कला सीख रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह बोध कराते हैं कि —
संसार के सभी गुण, सभी प्रवृत्तियाँ — चाहे वे श्रेष्ठ हों या सामान्य — सब उनके द्वारा उत्पन्न हैं,
किन्तु वे स्वयं उन भावों से परे हैं।
यह दृष्टिकोण एक साधक को सिखाता है कि —
“कर्तापन का अभिमान न करो, क्योंकि सब भगवान से उत्पन्न है।
और जो उत्पन्न हुआ है, वह ईश्वर में लीन होकर ही शुद्ध होता है।”
“भगवान त्रिगुणों के कारण हैं — पर त्रिगुणों के बंधन में नहीं।”
“साधक का लक्ष्य भी यही है — त्रिगुणों के पार जाकर भगवान को प्राप्त करना।”
– यही इस श्लोक का आध्यात्मिक संदेश है।