Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 7, Sloke 12

मूल श्लोक – 12

ये चैव सात्त्विका भावाः राजसाः तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दअर्थ
येजो भी
च एवऔर भी
सात्त्विकाः भावाःसात्त्विक प्रवृत्तियाँ, शुद्ध और सद्गुणी भाव
राजसाःरजोगुण से उत्पन्न भाव (क्रिया, लालसा आदि)
तामसाःतमोगुण से उत्पन्न भाव (अज्ञान, आलस्य आदि)
और
मत्तःमुझसे, मेरे द्वारा
एवही, वास्तव में
इतिइस प्रकार
तान् विद्धिउन्हें जानो
नहीं
तुकिंतु
अहम्मैं (भगवान श्रीकृष्ण)
तेषुउन गुणों में
ते मयिवे सब मुझमें हैं, मेरे अधीन हैं

तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मेरी शक्ति से ही प्रकट होते हैं। ये सब मुझमें हैं लेकिन मैं इनसे परे हूँ।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण त्रिगुणात्मक प्रकृति — सत्त्व, रज, तम — और उनकी उत्पत्ति के विषय में गहराई से उद्घाटन कर रहे हैं।

  1. सात्त्विक भाव — जैसे ज्ञान, शांति, संयम, करुणा, भक्ति आदि।
  2. राजसिक भाव — जैसे इच्छाएँ, क्रिया, कामना, प्रतियोगिता, लोभ।
  3. तामसिक भाव — जैसे आलस्य, अज्ञान, मोह, हिंसा, क्रूरता।

भगवान कहते हैं कि ये सभी भाव मेरे द्वारा ही प्रकृति के माध्यम से उत्पन्न होते हैं
परंतु मैं इनमें नहीं रहता।

यह स्पष्ट करता है कि —

  • ईश्वर इन गुणों का कारण हैं, लेकिन इनमें लिप्त नहीं हैं।
  • वे निर्गुण होते हुए भी सगुण प्रकृति की उत्पत्ति के हेतु हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक हमें सिखाता है कि त्रिगुण — सत्त्व, रज, तम — प्रकृति के गुण हैं, न कि ईश्वर के
  • भगवान स्वयं इन गुणों से परे (त्रिगुणातीत) हैं।
  • वह निर्लेप, निरपेक्ष, शुद्ध चेतन सत्ता हैं जो प्रकृति को चलाते हैं पर उसमें बंधते नहीं।
  • यह अद्वैत और सांख्य दर्शन दोनों का समन्वयपूर्ण बिंदु है।

प्रतीकात्मक अर्थ

तत्त्व / शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
सात्त्विक भावआत्मा की ओर उन्नति, प्रकाश
राजसिक भावसंसार की ओर आकर्षण, गति
तामसिक भावअंधकार, अवरोध, जड़ता
मत्त एवेतिभगवान ही कारण हैं — शक्ति के स्रोत
न तेषु अहम्ईश्वर स्वयं निर्लिप्त हैं, बंधनरहित हैं

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • हम अपने भीतर जो भी गुण या प्रवृत्ति देखते हैं — वह प्रकृति से उत्पन्न है, पर प्रेरणा परमात्मा से
  • साधक को समझना चाहिए कि ईश्वर सबका कारण हैं, पर वे कर्म और गुणों के प्रभाव से अछूते रहते हैं।
  • यदि हमें भगवान तक पहुँचना है, तो हमें त्रिगुणों से ऊपर उठकर ‘गुणातीत’ बनना होगा।
  • संसार में रहकर कर्म करते हुए भी निर्लिप्तता का अभ्यास आवश्यक है — जैसे भगवान स्वयं करते हैं।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं अपने भीतर के भावों को त्रिगुणों की दृष्टि से समझता हूँ?
  2. क्या मैं ईश्वर को गुणों में खोजता हूँ या उनके पार अनुभव करता हूँ?
  3. क्या मैं किसी गुण में अटक कर स्वयं को सीमित कर रहा हूँ?
  4. क्या मैं समझता हूँ कि संसार के सारे गुण-भाव भगवान से उत्पन्न होते हैं लेकिन भगवान उनमें बंधते नहीं?
  5. क्या मैं भी कर्म करके उनमें न फँसने की कला सीख रहा हूँ?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह बोध कराते हैं कि —
संसार के सभी गुण, सभी प्रवृत्तियाँ — चाहे वे श्रेष्ठ हों या सामान्य — सब उनके द्वारा उत्पन्न हैं,
किन्तु वे स्वयं उन भावों से परे हैं।

यह दृष्टिकोण एक साधक को सिखाता है कि —

“कर्तापन का अभिमान न करो, क्योंकि सब भगवान से उत्पन्न है।
और जो उत्पन्न हुआ है, वह ईश्वर में लीन होकर ही शुद्ध होता है।”

“भगवान त्रिगुणों के कारण हैं — पर त्रिगुणों के बंधन में नहीं।”
“साधक का लक्ष्य भी यही है — त्रिगुणों के पार जाकर भगवान को प्राप्त करना।”

– यही इस श्लोक का आध्यात्मिक संदेश है।

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