मूल श्लोक – 15
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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न | नहीं |
माम् | मुझे (भगवान को) |
दुष्कृतिनः | पाप-कर्मी, दुष्कर्म करने वाले |
मूढाः | मूर्ख, अज्ञानी, भ्रमित |
प्रपद्यन्ते | शरण लेते हैं, समर्पण करते हैं |
नर-अधमाः | अधम पुरुष, सबसे नीचे स्तर के मनुष्य |
मायया | माया के कारण |
अपहृत-ज्ञानाः | जिनका ज्ञान हर लिया गया है |
आसुरम् | आसुरी, दैवीगुणों के विपरीत |
भावम् | स्वभाव, वृत्ति |
आश्रिताः | जिनका आश्रय लिया है, जिनमें स्थित हैं |
चार प्रकार के लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते-वे जो ज्ञान से वंचित हैं, वे जो अपनी निकृष्ट प्रवृति के कारण मुझे जानने में समर्थ होकर भी आलस्य के अधीन होकर मुझे जानने का प्रयास नहीं करते, जिनकी बुद्धि भ्रमित है और जो आसुरी प्रवृति के हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि कौन लोग भगवान की शरण में नहीं आते और क्यों नहीं आते।
1. “दुष्कृतिनः” –
वे लोग जो सतत दुष्कर्म करते हैं।
उनकी प्रवृत्ति अधर्म, स्वार्थ, अहंकार और क्रूरता में होती है।
2. “मूढाः” –
जो अज्ञानवश संसार को ही परम सत्य समझते हैं।
वे माया में फँसकर यह नहीं समझ पाते कि भगवत्प्राप्ति जीवन का चरम लक्ष्य है।
3. “नराधमाः” –
जो मनुष्य जन्म पाकर भी उसे नैतिक, आध्यात्मिक उन्नति के लिए नहीं प्रयोग करते।
ईश्वर के दिए विवेक और साधनों का दुरुपयोग करते हैं।
4. “मायया अपहृतज्ञानाः” –
वे जिनका विवेक और सच्चा ज्ञान माया (अविद्या) द्वारा ढक दिया गया है।
वे संसार की चकाचौंध में ईश्वर की ओर मुड़ ही नहीं पाते।
5. “आसुरं भावम् आश्रिताः” –
जो दैवी नहीं, बल्कि आसुरी प्रवृत्तियों (जैसे घृणा, क्रोध, द्वेष, अहंकार) से प्रेरित हैं।
वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते, आत्मा और धर्म को मिथ्या मानते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि:
- ईश्वर सबके भीतर हैं, लेकिन हर कोई उन्हें नहीं पहचानता।
- पहचानने के लिए चाहिए —
- शुद्ध कर्म (सत्कर्म)
- विवेक और श्रद्धा
- दैवी गुणों का पोषण (क्षमा, दया, सत्य, अहिंसा)
जो लोग इनसे विमुख होते हैं, वे भगवान की ओर आकर्षित नहीं होते।
माया उन्हें भौतिकता, भोग और अहंकार के भ्रम में बांधे रखती है।
यह श्लोक यह भी सिखाता है कि आसुरी भाव और अज्ञान ही परम बाधाएँ हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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दुष्कृतिनः | वे जो अपने कर्मों से आत्मा का पतन करते हैं |
मूढाः | अंधकार में फंसे मनुष्य, जो ज्ञान से विमुख हैं |
नराधमाः | वे जो मनुष्य रूप में होकर भी मानवता को अपमानित करते हैं |
मायया अपहृतज्ञानाः | भौतिक माया जिनके विवेक को निगल चुकी है |
आसुरं भावम् आश्रिताः | दैवी गुणों से रहित, ईश्वर-विरोधी वृत्ति में स्थित लोग |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- केवल जन्म और बुद्धि पर्याप्त नहीं — सद्गुण, श्रद्धा, और विवेक आवश्यक हैं।
- ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है मोह और अहंकार।
- जो आत्मा आसुरी वृत्तियों से प्रेरित होती है, वह भक्ति की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकती।
- मनुष्य का कर्तव्य है —
- अपने कर्मों को शुद्ध करना
- विवेक को जाग्रत करना
- दैवी भावों को विकसित करना
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरे कर्म मुझे भगवत्साक्षात्कार की ओर ले जा रहे हैं या दूर?
- क्या मैं अपनी बुद्धि को माया के प्रभाव से बचा पा रहा हूँ?
- क्या मेरी प्रवृत्तियाँ दैवी हैं या आसुरी?
- क्या मैं भगवान की ओर स्वाभाविक आकर्षण अनुभव करता हूँ या उदासीनता?
- क्या मेरी जीवन दिशा भक्ति और ज्ञान की ओर है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से बताते हैं:
“हे अर्जुन!
दुष्कर्मी, अज्ञानी, अधम और आसुरी वृत्ति वाले लोग मेरी शरण में नहीं आते।
क्योंकि उनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है।”
यह श्लोक एक सचेत चेतावनी है:
- भगवान को पाना है तो केवल बुद्धिमत्ता या विद्वत्ता पर्याप्त नहीं —
- आवश्यक है पवित्र हृदय, दैवी स्वभाव और माया से ऊपर उठने का संकल्प।
जो भक्ति की राह पर चलना चाहते हैं, उन्हें पहले अपने भीतर के आसुरत्व का त्याग करना होगा।