Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 7, Sloke 4

मूल श्लोक – 4

भूममिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥4॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दअर्थ
भूमि:पृथ्वी तत्त्व (स्थूल तत्व)
आप:जल तत्त्व
अनल:अग्नि तत्त्व
वायु:वायु तत्त्व
खम्आकाश तत्त्व
मन:मन (इंद्रियों का समन्वयक)
बुद्धि:विवेक शक्ति
एव चऔर भी
अहङ्कार:अहं भाव, मैंपन
इतिइस प्रकार
अष्टधाआठ प्रकार से विभाजित
मेमेरी (भगवान की)
भिन्नाविभक्त, विभाजित
प्रकृति:प्रकृति, मायाशक्ति

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब मेरी प्राकृत शक्ति के आठ तत्त्व हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति (माया) के तत्वों की व्याख्या कर रहे हैं।
यह प्रकृति — जिससे सारी भौतिक सृष्टि बनी है, उसे भगवान ने आठ मुख्य तत्त्वों में विभाजित बताया:

  1. पाँच स्थूल तत्त्व (महाभूत):
    • भूमि (पृथ्वी) – गंध प्रधान, स्थायित्व और आकार का आधार।
    • आप (जल) – स्वाद प्रधान, तरलता और एकता का आधार।
    • अनल (अग्नि) – रूप प्रधान, ताप और परिवर्तन का कारक।
    • वायु – स्पर्श प्रधान, गति और जीवन की ऊर्जा।
    • खं (आकाश) – शब्द प्रधान, विस्तार और संवाद का माध्यम।
  2. तीन सूक्ष्म तत्त्व (अन्त:करण):
    • मन – इच्छाओं और भावनाओं का केंद्र।
    • बुद्धि – निर्णय और विवेक की शक्ति।
    • अहंकार – ‘मैं’ की भावना, आत्मा और शरीर का मिथ्या संबंध।

इन आठों तत्त्वों को “मेरी भिन्ना प्रकृति” कहा गया है —
अर्थात, ये भगवान की अपरा प्रकृति (जड़ प्रकृति) का हिस्सा हैं — जिससे यह भौतिक जगत बना है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक हमें बताता है कि संपूर्ण जगत जिन तत्त्वों से बना है — वे ईश्वर की ही विभाजित शक्ति हैं।
  • इस प्रकृति को “भिन्ना” कहा गया है, क्योंकि यह भगवान की शक्ति होते हुए भी अपूर्ण, जड़ और परिवर्तनशील है।
  • इसके विपरीत अगले श्लोक (7.5) में भगवान अपनी “पराप्रकृति” — अर्थात चेतन आत्मा का वर्णन करते हैं।
  • इसलिए यह श्लोक भौतिक और आत्मिक तत्वों में भेद करना सिखाता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

तत्त्वप्रतीकात्मक अर्थ
भूमिस्थायित्व, स्थूलता, ग्रहण
जलभावनाएँ, अनुकूलता, समरसता
अग्नितेज, रूपांतरण की शक्ति
वायुजीवनशक्ति, गति, परिवर्तनशीलता
आकाशविस्तार, स्वतंत्रता, संवाद
मनइच्छाशक्ति, संचयशील चित्त
बुद्धिविवेक, तर्क, निर्णय क्षमता
अहंकारआत्मा का भ्रम, ‘मैं’ की मिथ्या चेतना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • हम जिन भौतिक तत्त्वों से बने हैं, वे सभी ईश्वर की प्रकृति से उत्पन्न हैं।
  • लेकिन वे जड़ (अचेतन) हैं — इसलिए जब तक आत्मा (पराप्रकृति) न हो, तब तक इनसे जीवन संभव नहीं।
  • साधक को यह जानना चाहिए कि संसार की हर वस्तु परिवर्तनशील, विनाशी और प्रकृति से उत्पन्न है — ईश्वर उससे परे हैं।
  • यह विवेक जीवन में वैराग्य और आत्मबोध को जन्म देता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं जानता हूँ कि मेरा शरीर और मन भी भगवान की जड़ प्रकृति का ही हिस्सा हैं?
  2. क्या मैं आत्मा को प्रकृति से अलग पहचान सकता हूँ?
  3. क्या मेरी इच्छाएँ इन आठ तत्त्वों से ही संचालित हो रही हैं?
  4. क्या मैं इन तत्त्वों को साधन मानता हूँ या अंतिम सत्य?
  5. क्या मैं इन तत्त्वों के पार जाकर परमात्मा की चेतन शक्ति को जानने का प्रयास कर रहा हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक गीता के भौतिक और आध्यात्मिक विज्ञान का आधारशिला है।
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि संसार जिन तत्त्वों से बना है, वे स्वयं उनके अधीन और उनसे उत्पन्न हैं

इन आठों तत्त्वों को जानना — संसार की यथार्थ प्रकृति को समझने का द्वार है।

यह ज्ञान हमें संसार से बंधाता नहीं, बल्कि हमें ईश्वर तक पहुँचने का साधन बनता है।

“प्रकृति मेरी है – पर उससे परे भी मैं हूँ।” – यही इस श्लोक का मर्म है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *