मूल श्लोक – 6
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥6॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
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एतत् | यह (उपरोक्त बताई गई प्रकृति – अष्टधा प्रकृति) |
योनीनि | उत्पत्ति स्थल, जन्म का आधार |
भूतानि | समस्त प्राणी, सभी जीव |
सर्वाणि | समस्त, सभी |
इति | इस प्रकार |
उपधारय | समझो, अच्छी तरह जान लो |
अहम् | मैं (भगवान श्रीकृष्ण) |
कृत्स्नस्य | सम्पूर्ण का, समस्त का |
जगतः | जगत का, सृष्टि का |
प्रभवः | उत्पत्ति का कारण |
प्रलयः | संहार का कारण, अंत का हेतु |
तथा | और भी, इसी प्रकार |
यह जान लो कि सभी प्राणी मेरी इन दो शक्तियों द्वारा उत्पन्न होते हैं। मैं सम्पूर्ण सृष्टि का मूल कारण हूँ और ये पुनः मुझमें विलीन हो जाती हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण गहराई से स्पष्ट करते हैं कि:
- सभी जीवधारी (भूतानि) इन्हीं आठ मूल तत्त्वों (अष्टधा प्रकृति) से उत्पन्न होते हैं – जिसे उन्होंने पिछले श्लोक (7.4) में बताया था।
- यह प्रकृति, चाहे स्थूल हो (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) या सूक्ष्म (मन, बुद्धि, अहंकार), सभी के लिए ‘योनि’ है – अर्थात उत्पत्ति का माध्यम है।
- लेकिन उस प्रकृति के पीछे जो चेतन शक्ति उसे नियंत्रित कर रही है, वह स्वयं भगवान हैं – जो सृष्टि के प्रारंभ (प्रभवः) और अंत (प्रलयः) दोनों के हेतु हैं।
अर्थात – भगवान ही संपूर्ण जगत के मूल कारण हैं:
उत्पत्ति में भी, और संहार में भी।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक अद्वैत और विशिष्टाद्वैत के सिद्धांतों का केंद्रबिंदु है।
- भगवान यहाँ यह नहीं कह रहे कि “प्रकृति उत्पत्ति करती है और मैं अलग हूँ”, बल्कि वे कहते हैं कि –
प्रकृति तो मेरी शक्ति है, परन्तु मैं ही अंतिम कारण हूँ। - वह परम पुरुष (ईश्वर) ही “निमित्त कारण” भी है और “उपादान कारण” भी –
वह कारण भी है, और कारण के पीछे की चेतना भी।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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एतद्योनीनि | यह प्रकृति ही सृष्टि का गर्भस्थल है |
भूतानि | समस्त प्राणी – जड़ व चेतन |
अहं | सच्चिदानंद रूप परमात्मा |
प्रभवः | सृष्टि की चेतन गति की शुरुआत |
प्रलयः | चेतना का शून्यता या पूर्ण विलय में लय |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- हम केवल प्रकृति की संतान नहीं हैं — हमारी उत्पत्ति परमेश्वर की इच्छा से हुई है।
- भगवान केवल जगत के निर्माता नहीं, उसके आधार, पोषक और समापनकर्ता भी हैं।
- इस संसार को जानने का सही दृष्टिकोण है –
“जो दिखता है, वह प्रकृति है। पर जो चलाता है, वह भगवान है।” - साधक को यह समझकर संसार में रहना है कि सब कुछ भगवान से ही आता है और उन्हीं में लौट जाता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं केवल प्रकृति को ही मूल कारण मानता हूँ, या उसके पीछे परमात्मा की सत्ता को भी पहचानता हूँ?
- क्या मैं समझता हूँ कि मेरी उत्पत्ति और अंत दोनों भगवान के अधीन हैं?
- क्या मैं सृष्टि को देखने के साथ-साथ उसके मूल स्वरूप — ईश्वर को अनुभव करता हूँ?
- क्या मैं जीवन की घटनाओं को परमात्मा की योजना का भाग मानता हूँ?
- क्या मेरा विश्वास भगवान को केवल उपास्य रूप में देखता है, या सृजनकर्ता, धारक और विलायक रूप में भी?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि यह संपूर्ण भौतिक जगत और उसमें स्थित समस्त जीव मेरी ही शक्ति से उत्पन्न होते हैं,
और मैं ही अंततः उन्हें अपने में लीन कर लेता हूँ।
“मैं ही आदि हूँ, मैं ही अंत हूँ – और बीच की समस्त प्रक्रिया भी मेरा ही स्वरूप है।”
यह श्लोक साधक को अहंकार से मुक्त करता है, और उसे यह समझाता है कि –
“सभी कुछ भगवान की इच्छा और सत्ता से संचालित है –
इसलिए उसी में लीन होना ही परम उद्देश्य है।”
– यही इस श्लोक का गूढ़ संदेश है।