मूल श्लोक – 8
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
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रसः | सार, स्वाद, जल का मधुर गुण |
अहम् | मैं (भगवान श्रीकृष्ण) |
अप्सु | जल में |
कौन्तेय | हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन)! |
प्रभा | प्रकाश |
अस्मि | हूँ |
शशि-सूर्ययोः | चंद्रमा और सूर्य में |
प्रणवः | ॐकार, ओंकार स्वरूप |
सर्ववेदेषु | समस्त वेदों में |
शब्दः | ध्वनि, नाद |
खे | आकाश में |
पौरुषं | पुरुषत्व, पुरुषार्थ, वीरता |
नृषु | मनुष्यों में |
हे कुन्ती पुत्र! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, मैं वैदिक मंत्रों में पवित्र अक्षर ओम हूँ, मैं ही अंतरिक्ष की ध्वनि और मनुष्यों में सामर्थ्य हूँ।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि वे केवल किसी मंदिर या ध्यान में सीमित नहीं, बल्कि संसार के हर तत्व में व्याप्त हैं। वे बताते हैं कि –
- जल में स्वाद – रस जल का जीवनदायी गुण है। जब तुम जल पीते हो और तृप्ति अनुभव करते हो, वह मैं हूँ।
- सूर्य और चंद्रमा में प्रकाश – सारा संसार जिनके प्रकाश से प्रकाशित होता है, उनका तेज मैं हूँ।
- वेदों में ॐकार (प्रणव) – वेद का मूल, हर मंत्र की शुरुआत का आधार, ओंकार मैं हूँ।
- आकाश में ध्वनि – शब्द की उत्पत्ति आकाश से होती है। आकाश के कंपन और नाद में भी मैं ही हूँ।
- मनुष्यों में पौरुषम् – साहस, आत्मविश्वास, पुरुषार्थ, शक्ति – ये सभी मेरे ही स्वरूप हैं।
इस प्रकार ईश्वर कहते हैं – मैं हर अनुभव के मूल में हूँ।
जब तुम्हें आनंद मिलता है, जब तुम प्रकाश देखो, ज्ञान ग्रहण करो, साहस करो – वह सब मेरा ही रूप है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- भगवान श्रीकृष्ण यहाँ भगवत्ता की सार्वभौमिक उपस्थिति को दर्शाते हैं।
- ईश्वर केवल मूर्ति, मंदिर या ध्यान में नहीं, बल्कि प्रत्येक अनुभव, तत्व और गुण में प्रकट हैं।
- यह “विभूति योग” की भूमिका है, जिसमें भगवान स्वयं को हर उत्कृष्टता और सुंदरता में प्रकट मानते हैं।
- इस दृष्टि से देखा जाए तो हर क्षण, हर वस्तु और हर व्यक्ति में ईश्वर की झलक मिल सकती है – यदि दृष्टि जाग्रत हो।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द/तत्त्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
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रस | आनंद, जीवन का सार |
जल | भावनाएँ, शांति |
सूर्य-चंद्र प्रकाश | ज्ञान और सौंदर्य |
प्रणव (ॐ) | ब्रह्म, शाश्वत नाद |
शब्द | संवाद, चेतना की गूंज |
पौरुषं | साहस, कर्मशीलता, आत्म-बल |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ईश्वर को केवल पूजा में मत खोजो — उन्हें अनुभवों में भी पहचानो।
- हर बार जब तुम्हें साहस आता है, प्रकाश दिखता है, तृप्ति मिलती है — वह ईश्वर की उपस्थिति का संकेत है।
- संसार की हर श्रेष्ठता, सुंदरता और शक्ति में ईश्वर का ही प्रतिबिंब है।
- जब मनुष्य यह जान लेता है कि ईश्वर हर स्थान पर हैं, तब भय, घृणा और अहंकार स्वतः नष्ट हो जाते हैं।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं जल का रस पीते समय ईश्वर की कृपा को पहचानता हूँ?
- क्या मैं प्रकाश में केवल सूर्य-चंद्र का तेज देखता हूँ, या उस तेज के मूल को भी अनुभव करता हूँ?
- क्या मेरी साधना केवल मंत्रोच्चार है या मैं उसके ओंकार-स्रोत को समझता हूँ?
- क्या मैं साहस, आत्मबल और कर्म में ईश्वर का अनुभव करता हूँ?
- क्या मैं संसार की हर उत्कृष्टता में ईश्वर की उपस्थिति को देख सकता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मा को एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं —
जहाँ ईश्वर केवल उपास्य नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव हैं।
उनका वास न केवल वेदों में है, नाद में है, जल में है, प्रकाश में है, बल्कि हमारे पुरुषार्थ में भी है।
जब साधक प्रत्येक अनुभव में ईश्वर की उपस्थिति को पहचानने लगता है, तब भक्ति सहज हो जाती है।
“ईश्वर को बाहर मत खोजो — भीतर और चारों ओर अनुभव करो।”
“प्रकाश, रस, ध्वनि, साहस — सब में वही परमात्मा प्रकट है।”
– यही इस श्लोक का दिव्य संदेश है।