Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 8, Sloke 3

मूल श्लोक – 3

श्रीभगवान उवाच।
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः ॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दहिन्दी अर्थ
श्रीभगवान उवाचभगवान श्रीकृष्ण ने कहा
अक्षरम्जो नष्ट नहीं होता, अविनाशी
ब्रह्मपरम तत्त्व, शाश्वत चेतना
परमम्सर्वोच्च, श्रेष्ठ
स्वभावःआत्मस्वरूप, प्रकृति
अध्यात्मम्आत्मा का ज्ञान, अध्यात्म
उच्यतेकहा जाता है
भूत-भाव-उद्भव-करःसमस्त प्राणियों की उत्पत्ति का कारण
विसर्गःसृष्टि करना, उत्पत्ति प्रक्रिया
कर्म-संज्ञितःजिसे “कर्म” कहा गया है

परम कृपालु भगवान ने कहाः परम अविनाशी सत्ता को ब्रह्म कहा जाता है। किसी मनुष्य की अपनी आत्मा को अध्यात्म कहा जाता है। प्राणियों के दैहिक व्यक्तित्व से संबंधित कर्मों और उनकी विकास प्रक्रिया को कर्म या साकाम कर्म कहा जाता है।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए तीन महत्वपूर्ण विषयों की परिभाषा देते हैं:

  1. ब्रह्म (Brahman) – वह परम सत्य जो अविनाशी है, जिसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता, जो सदा-सर्वदा बना रहता है, वही अक्षरं ब्रह्म परमं है।
  2. अध्यात्म (Adhyatma) – आत्मा का स्वभाव, उसका शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही अध्यात्म है। जब कोई अपने भीतर के शाश्वत तत्व को पहचानता है, तो वह अध्यात्म का अनुभव करता है।
  3. कर्म (Karma) – वह प्रक्रिया जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है — अर्थात सृष्टि, जीवन चक्र और गतिविधियाँ — उसे ही विसर्ग कहते हैं और वही कर्म कहलाता है।

यहाँ ‘कर्म’ का अर्थ केवल व्यक्तिगत क्रिया से नहीं है, बल्कि समष्टिगत सृष्टिकर्म से है — जिससे सभी भूत (जीव) उत्पन्न होते हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक वेदांत और सांख्य दर्शन के तत्वों को स्पष्ट करता है:

  • ब्रह्म — परम सत्ता, जो अविनाशी, निर्गुण और निराकार है।
  • अध्यात्म — आत्मा की प्रकृति, जिसे जानने से मोक्ष प्राप्त होता है।
  • कर्म — कारण और परिणाम की वह श्रृंखला जो जीवन के चक्र को आगे बढ़ाती है।

यहाँ भगवान जीवन के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर अत्यंत सारगर्भित और तात्त्विक शैली में देते हैं।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्द / वाक्यांशप्रतीकात्मक अर्थ
अक्षरं ब्रह्म परमम्वह परम सत्य जो कभी बदलता नहीं — शाश्वत, चेतन सत्ता
स्वभावः अध्यात्मम्आत्मा की मौलिक पहचान, उसका शुद्ध स्वरूप
भूतभावोद्भवकरः विसर्गःसृष्टि, जीवन की उत्पत्ति और कर्म का चक्र
कर्मसंज्ञितःसमस्त गति-प्रगति और विकास की प्रक्रिया को ही ‘कर्म’ कहा गया

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • ब्रह्म को जानना है तो पहले यह समझो कि वह अविनाशी है, परिवर्तनशील नहीं।
  • अध्यात्म केवल पूजा या कर्मकांड नहीं, आत्मा की सच्ची पहचान का मार्ग है।
  • कर्म का सही अर्थ केवल क्रिया नहीं, सृष्टि का गहन रहस्य है।
  • जब व्यक्ति ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म — तीनों को जान लेता है, तब जीवन के बाह्य और आंतरिक रहस्य उसके लिए स्पष्ट हो जाते हैं।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं ब्रह्म को नाशवान वस्तुओं के रूप में देखता हूँ या अविनाशी रूप में?
  2. क्या मैंने कभी आत्मा के “स्वभाव” को जानने की चेष्टा की है?
  3. क्या मेरा कर्म केवल क्रियाओं तक सीमित है या सृष्टि के गूढ़ तत्त्वों से जुड़ा है?
  4. क्या मेरी साधना केवल भावना आधारित है या तत्वज्ञान आधारित?
  5. क्या मैं अपने जीवन में अध्यात्म, ब्रह्म और कर्म का सम्यक संतुलन बना पा रहा हूँ?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में जीवन और ब्रह्माण्ड के तीन आधार स्तंभों — ब्रह्म, अध्यात्म, और कर्म — की परिभाषा देकर अर्जुन को तत्वज्ञान की ओर अग्रसर करते हैं।

यह श्लोक बताता है कि जो व्यक्ति

  • ब्रह्म को समझता है (परम सत्य),
  • अध्यात्म को अनुभव करता है (आत्मा की प्रकृति),
  • और कर्म के गूढ़ रहस्य को जानता है (जीवन-चक्र),
    वह जीवन और मृत्यु के पार जाकर मोक्ष के मार्ग पर चलता है।

ज्ञान के बिना भक्ति अपूर्ण है, और भक्ति के बिना ज्ञान निर्जीव। यह श्लोक दोनों को समन्वित करता है।

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