मूल श्लोक – 8
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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अभ्यासयोगयुक्तेन | अभ्यास और योग से युक्त, नियमित साधना से स्थिर |
चेतसा | चित्त से, मन से |
न अन्यगामिना | जो अन्य विषयों में न जाए, विचलित न हो |
परमं पुरुषं | परम पुरुष (भगवान), सर्वोच्च चेतन सत्ता |
दिव्यं | दिव्य स्वरूप वाला, अलौकिक |
याति | प्राप्त करता है, पहुँचता है |
पार्थ | हे पार्थ! (अर्जुन के लिए संबोधन) |
अनुचिन्तयन् | निरंतर चिन्तन करते हुए, ध्यानपूर्वक स्मरण करते हुए |
हे पार्थ! अभ्यास के साथ जब तुम अविचलित भाव से मन को मुझ पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में लीन करते हो तब तुम निश्चित रूप से मुझे पा लोगे।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण एक अत्यंत सरल लेकिन गहन साधना-पथ बताते हैं —
वह पथ है:
निरंतर अभ्यास
अनन्य स्मरण
स्थिर चित्त
- अभ्यासयोगयुक्तेन — साधना के द्वारा मन को बार-बार ईश्वर में स्थिर करने का अभ्यास। यह केवल ध्यान बैठना नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक कर्म में ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करने की प्रक्रिया है।
- नान्यगामिना — वह चित्त जो कभी भी अन्य विषयों की ओर नहीं जाता, न कामनाओं में, न मोह में, न भय में — अनन्यता यहाँ भक्ति का शुद्धतम रूप है।
- परमं पुरुषं दिव्यं — यहाँ परमात्मा को दिव्य पुरुष कहा गया है — जो अव्यक्त, अनादि, सर्वव्यापक और निर्गुण-सगुण दोनों रूपों में पूजनीय हैं।
- अनुचिन्तयन् — निरंतर, मन में उसी के चिंतन में मग्न, मन की गहराइयों में वही भाव।
ऐसा स्मरण केवल वाणी से नहीं, पूर्ण चित्त, बुद्धि और हृदय से होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक बताता है कि भगवत्प्राप्ति कोई आकस्मिक चमत्कार नहीं, बल्कि यह एक निरंतर साधना का परिणाम है।
- “अभ्यास” = कर्म योग
“अनन्यता” = भक्ति योग
“चिन्तन” = ध्यान योग
इस प्रकार यह श्लोक त्रि-योग समन्वय है। - आत्मा की परम गति तब होती है जब वह सदैव परमात्मा में रमी रहे, चाहे वह जीवन की किसी भी अवस्था में हो।
प्रतीकात्मक अर्थ
श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा | निरंतर अभ्यास से स्थिर, शुद्ध, और भगवान में एकाग्र मन |
नान्यगामिना | कोई अन्य लक्ष्य नहीं — केवल परमात्मा ही जीवन का उद्देश्य |
परमं पुरुषं दिव्यं | सर्वोच्च चेतना, दिव्य आत्मस्वरूप — ब्रह्म |
याति अनुचिन्तयन् | निरंतर भगवान का चिंतन करने वाला साधक अंततः उन्हें प्राप्त करता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्ष
- भगवद्प्राप्ति केवल मृत्यु के समय भगवान को याद करने से नहीं, बल्कि जीवनभर की अनन्य साधना से संभव होती है।
- अभ्यास ही वह सेतु है जो चंचल मन को भगवान में स्थिर करता है।
- यह श्लोक सिखाता है कि मन को विकर्षण (distraction) से बचाकर, एक ही ध्येय — भगवान — पर टिकाना ही मोक्ष की कुंजी है।
- साधना, भक्ति, ध्यान — इन सभी का सार है “अनुचिन्तन” — अर्थात निरंतर चित्त में प्रभु का चिन्तन।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा मन अभ्यासयोग से युक्त है या वह हर विषय में उलझा हुआ है?
- क्या मेरी साधना निरंतर और एकाग्र है, या केवल कभी-कभी की जाती क्रिया है?
- क्या मैं जीवन में केवल ईश्वर को ही प्राप्त करना चाहता हूँ या और भी इच्छाएँ हैं?
- क्या मेरा चित्त अनन्य है या अभी भी संसार की और आकृष्ट होता है?
- क्या मैं अपने जीवन को परम पुरुष के अनुचिन्तन के लिए समर्पित कर पाया हूँ?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक में एक साधक के परम लक्ष्य — परम पुरुष की प्राप्ति का साधन बताते हैं:
- निरंतर अभ्यास (अभ्यासयोग)
- अनन्यता (नान्यगामिता)
- चित्त की स्थिरता
- निरंतर ईश्वर चिंतन (अनुचिन्तन)
यह श्लोक गीता के भक्ति योग, ध्यान योग और ज्ञान योग का सार है —
ईश्वर के साथ ऐसी एकता कि मृत्यु भी केवल मिलन का एक माध्यम बन जाए।
जिसका मन ईश्वर में रम गया, उसके लिए मोक्ष केवल समय की प्रतीक्षा है — क्योंकि वह अभी से मुक्त है।