मूल श्लोक
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥३६॥
शब्दार्थ
- निहत्य – मारकर
- धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को
- नः – हमें
- का प्रीतिः स्यात् – कैसी प्रसन्नता या सुख की प्राप्ति होगी
- जनार्दन – हे जनों के पीड़ा को हरने वाले श्रीकृष्ण
- पापम् एव – पाप ही
- आश्रयेत् अस्मान् – हमें घेर लेगा, हम पर आ जाएगा
- हत्वा एतान् – इनको मारकर
- आततायिनः – अपराधी, अत्याचारी, आतंकी
हे समस्त जीवों के पालक! धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हमें क्या सुख प्राप्त होगा? यद्यपि वे सब अत्याचारी हैं फिर भी यदि हम उनका वध करते हैं तब निश्चय ही उन्हें मारने का हमें पाप लगेगा।

भावार्थ
यह श्लोक उस गहन नैतिक और भावनात्मक द्वंद्व का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें अर्जुन उलझा हुआ है। युद्धभूमि में खड़ा होकर अर्जुन केवल विरोधी योद्धाओं को नहीं देख रहा है, वह उन्हें अपने आत्मीय, अपने रक्त, अपने अतीत और अपने संबंधों के रूप में देख रहा है।
इस श्लोक में वह कहता है कि भले ही कौरव आततायी हों, उन्हें मारना पाप ही कहलाएगा, क्योंकि वे उसके अपने हैं। और उनके मारे जाने पर अर्जुन को कोई भी सुख या संतोष नहीं मिलेगा। यहाँ से यह स्पष्ट होता है कि अर्जुन की नैतिक दृष्टि और सामाजिक मूल्य किस प्रकार उसे युद्ध से विमुख कर रहे हैं।
विस्तृत विवेचन
1. अर्जुन की करुणा और धर्मसंकट
अर्जुन इस श्लोक में श्रीकृष्ण से कहता है कि यदि हम अपने ही बंधुओं को मार देंगे, तो क्या हमें कोई सच्ची प्रसन्नता प्राप्त होगी? “का प्रीतिः स्यात्?” — यह वाक्य अत्यंत मार्मिक है। वह युद्ध के परिणाम पर प्रश्न करता है।
यहाँ अर्जुन विजय से मिलने वाली सुख-संपत्ति या सत्ता को तुच्छ मानता है। वह कहता है कि यदि इन कौरवों को मार कर राज्य प्राप्त भी हो जाए, तो उसमें कोई आनंद नहीं होगा, क्योंकि उसमें आत्मीयों का रक्त मिला होगा।
2. “आततायी” शब्द का प्रयोग — अर्थ और विरोधाभास
अर्जुन कौरवों को “आततायी” कहकर संबोधित करता है, जिसका अर्थ है – ऐसा व्यक्ति जो दूसरों को अकारण पीड़ा देता है, जैसे हत्यारा, दुराचारी, आगजनी करने वाला, ज़हर देने वाला, भूमि हरण करने वाला आदि।
मनुस्मृति के अनुसार सात प्रकार के अपराधी आततायी माने गए हैं, और ऐसे व्यक्तियों का वध धर्मसम्मत माना गया है।
परन्तु यहाँ अर्जुन कहता है कि — “भले ही वे आततायी हों, फिर भी उनको मारना पाप ही होगा।”
यह मोह की पराकाष्ठा है। वह धर्मबुद्धि की अपेक्षा भावुकता और करुणा से निर्णय लेना चाहता है।
3. आत्मीयता बनाम न्याय
युद्ध का मुख्य कारण धर्म की रक्षा और अन्याय का नाश है। परन्तु अर्जुन के लिए यह लड़ाई केवल न्याय-अन्याय नहीं रह जाती — वह इसे अपने रिश्तों की विनाशलीला मानने लगता है।
कौरवों का अत्याचार स्पष्ट है — जुए में द्रौपदी का अपमान, पांडवों को वनवास देना, राज्य को न लौटाना — ये सब उन्हें आततायी सिद्ध करते हैं। लेकिन अर्जुन की दृष्टि संबंधों से इस कदर आच्छादित हो चुकी है कि वह न्याय के लिए शस्त्र उठाने में भी पाप देखता है।
4. क्या हर हत्या पाप है?
अर्जुन का यह विचार — कि “हत्या पाप है” — सामान्यतः उचित लगता है, परंतु धर्मशास्त्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि अधर्मियों का नाश धर्म का अंग है।
यदि कोई व्यक्ति समाज को, सत्य को, धर्म को, स्त्रियों की मर्यादा को और न्याय को नष्ट करने पर तुला हो, और फिर भी कोई वीर उसे केवल अपने व्यक्तिगत मोहवश जीवित छोड़ दे — तो वह वीर नहीं, धर्मत्यागी कहलाएगा।
यहाँ श्रीकृष्ण यही बिंदु अर्जुन को आगे चलकर समझाते हैं।
5. अर्जुन का भ्रम — पाप और पुण्य के बारे में
इस श्लोक में अर्जुन कहता है कि “हत्वा एतान् पापम् एव आश्रयेत् अस्मान्” — अर्थात् मार कर हम पर पाप ही चढ़ेगा। यह धर्म और अधर्म का सीमित और मोहग्रस्त दृष्टिकोण है।
गीता का मर्म है — कर्म फल की दृष्टि से नहीं, धर्म की दृष्टि से किया जाना चाहिए। यदि अधर्म का नाश करना धर्म है, तो वह कर्म पाप नहीं, पुण्य है।
6. श्रीकृष्ण को ‘जनार्दन’ कहने की महत्ता
अर्जुन इस श्लोक में श्रीकृष्ण को “जनार्दन” कहकर संबोधित करता है — अर्थात् जनों के कष्ट को हरने वाले।
यह भी एक प्रकार का आग्रह है — वह कहता है, “हे जनार्दन! तुम तो जनों के दुःख का अंत करने वाले हो, तो क्या इन लोगों की हत्या से दुःख समाप्त होगा या और बढ़ेगा?” यह श्रीकृष्ण से सहानुभूति की अपेक्षा है।
परन्तु श्रीकृष्ण जानते हैं कि दुष्टों का वध ही जनों के कष्ट का अंत है।
7. धर्म और राग का संघर्ष
यह श्लोक गीता की उस मूल भावना को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति का राग (मोह) धर्म से टकराता है। अर्जुन की दृष्टि शुद्ध नहीं रही है। वह कर्तव्य को नहीं देख रहा, केवल भावनात्मक संबंधों को देख रहा है।
इसलिए, युद्ध अब उसके लिए न्याय का साधन न होकर, पाप का कारण बन गया है, जो वास्तव में सत्य नहीं है।
8. प्रतीकात्मक दृष्टि
प्रतीक | अर्थ |
---|---|
धार्तराष्ट्र | अहंकार, अधर्म, लोभ |
निहत्य | बुरी प्रवृत्तियों का अंत |
प्रीति | आत्मिक शांति |
पाप | आत्मग्लानि, धर्मच्युत स्थिति |
यह श्लोक केवल युद्ध का चित्रण नहीं, बल्कि मानव अंतःकरण के संघर्ष का चित्रण है — जहाँ कर्म की नीतिकता, मोह, धर्म और संदेह एक-दूसरे से उलझते हैं।
9. चिंतन के प्रश्न
क्या हर हिंसा पाप होती है, या उद्देश्य भी महत्वपूर्ण है?
क्या करुणा और धर्म के बीच कभी संघर्ष होता है?
यदि कोई अपने प्रियजनों के अधर्म को देखे, तो क्या उसका मौन रहना उचित है?
निष्कर्ष
“निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्यात् जनार्दन” — इस वाक्य के माध्यम से अर्जुन का अंतर्द्वंद्व, उसकी करुणा, उसका मोह और उसका अधर्म की समझ — सब एक साथ उभर कर आते हैं।
वह युद्ध को केवल बाह्य हिंसा मानता है, पर श्रीकृष्ण उसे आगे समझाएंगे कि धर्म की स्थापना के लिए शस्त्र उठाना कर्तव्य है, और यही युद्ध आत्मा की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है।
यह श्लोक आज भी हमें सिखाता है कि जीवन में कई बार निर्णय कठिन होंगे, और तब केवल भावना से नहीं, धर्म, विवेक और साहस से मार्ग चुनना चाहिए। अर्जुन का यह भ्रम — हमारा भी भ्रम बन सकता है, जब हम केवल अपने स्वजन को देखे, और धर्म को भूल जाएँ।