Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 2, Sloke 66

मूल श्लोक: 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥

शब्दार्थ

  • नास्ति — नहीं है
  • बुद्धिः — बुद्धि, विवेक, समझ
  • अयुक्तस्य — जो योग (संयम) में नहीं है, असंयमी का
  • न च — और नहीं
  • आयुक्तस्य — जो संयमित नहीं है, असंयमी का
  • भावना — स्मरण, विचार, मनन
  • न च — और नहीं
  • अभावयतः — जो शांत नहीं है, अशांत का
  • शान्तिः — शांति, मानसिक स्थिरता
  • अशान्तस्य — जो अशांत है, अस्थिर है
  • कुतः — कहाँ से
  • सुखम् — सुख, आनंद

लेकिन असंयमी व्यक्ति का अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं होता, न ही उसकी बुद्धि दृढ़ होती है और न ही उसका मन भगवान के चिन्तन में स्थिर हो सकता है। अपने मन को भगवान में स्थिर किये, जिसके बिना शान्ति संभव नहीं और शांति के बिना कोई कैसे सुखी रह सकता है?

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति की व्याख्या करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति योग (संयम, आत्म-नियंत्रण) में नहीं है, उसकी बुद्धि और मानसिक स्पष्टता नहीं होती।

बुद्धि का अर्थ है सही निर्णय लेने की क्षमता, जो केवल संयम और योग से ही प्राप्त होती है। बिना संयम के मन भ्रमित, उलझा और अस्थिर रहता है।

जो मन अशांत है, वह कभी स्थायी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। अशांत मन दुःख और बेचैनी का कारण होता है। इस प्रकार, शांति के बिना सुख असंभव है।

इस श्लोक में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि आत्म-संयम, शांति और विवेक ही सच्चे सुख के आधार हैं।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक हमारे मनोविज्ञान की गहराई को बताता है। जब मन अव्यवस्थित और अशांत होता है, तो सही सोच और निर्णय असंभव हो जाते हैं। जीवन में स्थिरता और आनंद की अनुभूति के लिए मानसिक शांति अत्यावश्यक है।

संयमहीनता मन को भ्रमित करती है और परिणामस्वरूप व्यक्ति निरंतर तनाव और दुःख में रहता है। इसलिए, योग और आत्म-नियंत्रण से ही मन की बुद्धि स्थिर होती है और शांति का अनुभव होता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • बुद्धिरयुक्तस्य नास्ति — जो संयमी नहीं, उसका मन अंधकारमय और भ्रमित होता है।
  • भावना नास्ति — उस मन में सही विचारों और निर्णय की क्षमता नहीं।
  • शान्तिरशान्तस्य नास्ति — अशांत मन में कभी शांति नहीं होती।
  • कुतः सुखम् — बिना शांति के सुख संभव नहीं।

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • संयम और योग से ही मन की बुद्धि स्थिर और स्पष्ट होती है।
  • मानसिक शांति के बिना जीवन में स्थायी सुख संभव नहीं।
  • आंतरिक अनुशासन और साधना सुख की कुंजी है।
  • अशांत मनुष्य बाहरी सुखों को प्राप्त करके भी संतोषी नहीं हो सकता।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मेरा मन संयमित और नियंत्रित है?
क्या मैं अपने विचारों और भावनाओं को समझदारी से संभाल पाता हूँ?
क्या मेरे जीवन में मानसिक शांति का अनुभव है?
क्या मैं बिना शांति के अस्थायी सुखों का पीछे भाग रहा हूँ?
क्या मैं योग और ध्यान से अपनी बुद्धि और शांति बढ़ाने का प्रयास करता हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें सिखाता है कि संयम और योग के बिना मन का स्थिर होना संभव नहीं है। जब मन अशांत रहता है, तब न तो सही बुद्धि का विकास होता है और न ही सुख की प्राप्ति।

श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से हमें आत्म-नियंत्रण और मानसिक शांति की महत्ता समझाई है, जो जीवन के वास्तविक सुख का आधार है।

सच्चा सुख तभी संभव है जब हमारा मन संयमी, शांत और स्पष्ट हो।

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