मूल श्लोक: 63
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥63॥
शब्दार्थ
- क्रोधात् — क्रोध से
- भवति — उत्पन्न होता है
- सम्मोहः — भ्रम, अंधकार, माया
- सम्मोहात् — भ्रम से
- स्मृतिविभ्रमः — स्मृति का विक्षेप, याददाश्त का भ्रम होना
- स्मृतिभ्रंशात् — स्मृति के नष्ट हो जाने से
- बुद्धिनाशः — बुद्धि का नाश, विवेक का क्षय
- बुद्धिनाशात् — बुद्धि नष्ट हो जाने से
- प्रणश्यति — व्यक्ति नष्ट हो जाता है, विनष्ट हो जाता है
क्रोध निर्णय लेने की क्षमता को क्षीण करता है जिसके कारण स्मृति भ्रम हो जाता है। जब स्मृति भ्रमित हो जाती है तब बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का पतन हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक क्रोध के घातक परिणामों का वर्णन करता है। जब व्यक्ति क्रोध में होता है, तो उसकी मानसिक स्थिति भ्रमित हो जाती है। क्रोध उसकी समझदारी और विवेक को धूमिल कर देता है। इसी भ्रम के कारण स्मृति या याददाश्त कमजोर हो जाती है, जिससे व्यक्ति अपने विचारों में उलझ जाता है और सही निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है।
स्मृति के क्षय के साथ-साथ उसकी बुद्धि भी नष्ट होने लगती है। बुद्धि के बिना, व्यक्ति जीवन के सही मार्ग और नैतिकता को समझ नहीं पाता और अंततः वह अपने अस्तित्व के लिए खतरा बन जाता है। इस प्रकार, क्रोध एक ऐसी आग है जो व्यक्ति को अंदर से जला डालती है और उसे विनाश के मार्ग पर ले जाती है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
क्रोध मन का विकार है जो शांति और संयम को भंग कर देता है। यह मनुष्य को भ्रम और असमझदारी में डालता है। इस श्लोक में मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से बताया गया है कि क्रोध कैसे क्रमशः व्यक्ति की मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का विनाश करता है।
जब क्रोध उत्पन्न होता है तो व्यक्ति का मन भ्रमित हो जाता है, जो उसकी स्मृति और बुद्धि को प्रभावित करता है। स्मृति के विक्षेप से वह अपना स्वयं का मार्ग भूल जाता है और बुद्धि नष्ट होने से वह अपने कर्मों और निर्णयों में अंधकार में फंस जाता है।
यह विनाश केवल मानसिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी होता है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य से दूर हो जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- क्रोध — आंतरिक अग्नि जो मन को जलाती है।
- सम्मोहः — माया या भ्रम की स्थिति, अज्ञानता का आवरण।
- स्मृतिविभ्रमः — याददाश्त और समझ का विक्षय।
- बुद्धिनाशः — विवेक और ज्ञान का क्षय।
- प्रणश्यति — अस्तित्व का संकट, आत्मा या जीवन का पतन।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- क्रोध को वश में रखना आवश्यक है, अन्यथा यह मन को विकृत कर देता है।
- संयम और धैर्य से ही मन की शांति और बुद्धि की स्थिरता बनी रहती है।
- क्रोध से उत्पन्न भ्रम और अंधकार से बचने के लिए आत्म-संयम आवश्यक है।
- मनुष्य की स्मृति और बुद्धि की रक्षा करना उसके आध्यात्मिक विकास के लिए अनिवार्य है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं क्रोध को नियंत्रित कर पाता हूँ?
क्रोध के समय मेरा मन किस प्रकार प्रतिक्रिया करता है?
क्या क्रोध के कारण मेरी सोच और निर्णय प्रभावित होते हैं?
मैं अपनी बुद्धि और स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए क्या उपाय करता हूँ?
क्या मैं क्रोध की स्थिति में अपने आप को शांत करने का प्रयास करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक क्रोध के विनाशकारी प्रभावों को स्पष्ट करता है। यह हमें चेतावनी देता है कि क्रोध न केवल मानसिक शांति को भंग करता है बल्कि हमारी स्मृति, बुद्धि और अंततः जीवन के अस्तित्व को भी खतरे में डालता है।
इसलिए, व्यक्ति को चाहिए कि वह क्रोध को जागने न दे, उसे संयमित करे, और मन को शांत रखे। संयमित मन ही विवेकपूर्ण निर्णय कर सकता है और जीवन को सही दिशा दे सकता है।
इस प्रकार, क्रोध से उत्पन्न भ्रम और अंधकार को दूर कर, स्मृति और बुद्धि को संरक्षित रखना आध्यात्मिक प्रगति का मूलमंत्र है।