मूल श्लोक: 30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥
शब्दार्थ
- मयि — मुझमें (भगवान में)
- सर्वाणि कर्माणि — सभी कर्मों को
- संन्यस्य — समर्पित करके, त्याग करके
- अध्यात्मचेतसा — आत्मज्ञानयुक्त चित्त के साथ
- निराशीर् — फल की आशा से रहित
- निर्ममः — ममता (अहंकार) से रहित
- भूत्वा — होकर
- युध्यस्व — युद्ध कर
- विगतज्वरः — चिन्ता, मोह और क्लेश से रहित होकर
अपने समस्त कर्मों को मुझको अर्पित करके और परमात्मा के रूप में निरन्तर मेरा ध्यान करते हुए कामना और स्वार्थ से रहित होकर अपने सन्तापों को त्याग कर युद्ध करो।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग के मूल मंत्र को अत्यंत संक्षेप और प्रभावी ढंग से अर्जुन के सम्मुख रखते हैं। वे कहते हैं कि किसी भी कार्य में सफलता तभी मिलती है जब मन शांत, निश्छल और समर्पण से युक्त हो।
यहाँ “मयि संन्यस्य” का तात्पर्य है — अपने सभी कार्यों को भगवान के चरणों में अर्पण करना। यह कोई बाह्य क्रिया नहीं, बल्कि एक आंतरिक भाव है, जहाँ कर्तापन का अहं समाप्त हो जाता है और व्यक्ति यह अनुभव करता है कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, सब ईश्वर की प्रेरणा से हो रहा है।”
“अध्यात्मचेतसा” — आत्मज्ञान से युक्त चित्त — यह दर्शाता है कि कर्म करने वाला अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) को जानता है और कर्म करते हुए भीतर से निर्लिप्त रहता है।
“निराशीः” — फल की आकांक्षा छोड़ देना; “निर्ममः” — ‘मेरा’ भाव का त्याग करना। जब व्यक्ति यह समझता है कि न कर्म मेरा है, न फल मेरा — तब ही वह “विगतज्वरः” — अर्थात चिंता, मोह, भय, तनाव से मुक्त होकर — कर्म कर सकता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्मयोग की गहराई को प्रकट करता है:
- कर्म में संन्यास नहीं चाहिए, अपितु कर्म का ईश्वर में संन्यास चाहिए।
- त्याग चाहिए कर्ता-भाव का, फल की इच्छा का, और ‘मेरा’ की ममता का।
- जब चित्त अध्यात्म में स्थिर होता है, तब ही व्यक्ति निर्लिप्त होकर कर्म कर सकता है।
कर्म को ईश्वर को समर्पित कर देना ईश्वरार्पण बुद्धि कहलाती है — जो व्यक्ति इस बुद्धि से कर्म करता है, वह कर्मफल के बंधन से मुक्त हो जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- मयि संन्यस्य — अहंकार छोड़कर कर्म ईश्वर को समर्पित करना
- अध्यात्मचेतसा — आत्मा को जानने वाली चेतना
- निराशीः — फल की आकांक्षा नहीं
- निर्ममः — ममता, “मैं” और “मेरा” का त्याग
- विगतज्वरः — चिंता और संशय रहित स्थिति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्म में संन्यास नहीं, बल्कि कर्तापन और फल की आशा का त्याग जरूरी है।
- आत्मज्ञान के बिना किया गया संन्यास अधूरा है — पर आत्मबोध के साथ किया गया कर्म मोक्षदायक है।
- फल की चिंता, अहंकार, और मोह — यही “ज्वर” हैं, जो शांति को हर लेते हैं।
- यदि ये तीन हट जाएँ — तो हर कर्म तप और पूजा बन जाता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने कर्मों को ईश्वर को अर्पित भाव से करता हूँ?
क्या मैं फल की चिंता में उलझकर कर्म का आनंद खो देता हूँ?
क्या मेरे भीतर अभी भी “मैं” और “मेरा” का मोह है?
क्या मैं आत्मा और शरीर के भेद को जानता हूँ?
क्या मैं अपने जीवन में “विगतज्वर” — यानी चिंता, भय, अहंकार से मुक्त हो पाया हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक कर्मयोग की आत्मा है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
- कर्म से भागो मत
- कर्ता-भाव और फल की इच्छा को त्यागो
- कर्म को मुझमें समर्पित करो
- आत्मज्ञान की दृष्टि रखो
- और पूरी तन्मयता, परंतु निर्विकार भाव से कर्म करो
यही सच्चा संन्यास है। यही कर्मयोग है। और यही आत्मा की मुक्ति का मार्ग है।