मूल श्लोक: 31
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥
शब्दार्थ
- ये — जो
- मे — मेरे
- मतम् — मत, उपदेश, सिद्धांत
- इदं — यह
- नित्यम् — सदा, नियमित
- अनुतिष्ठन्ति — पालन करते हैं
- मानवाः — मनुष्य
- श्रद्धावन्तः — श्रद्धा युक्त, आस्थावान
- अनसूयन्तः — बिना ईर्ष्या या दोषारोपण के, निर्विरोध
- मुच्यन्ते — मुक्त हो जाते हैं
- ते अपि — वे भी
- कर्मभिः — कर्मों (के बंधन) से
जो मनुष्य अगाध श्रद्धा के साथ मेरे इन उपदेशों का पालन करते हैं और दोष दृष्टि से परे रहते हैं, वे भी कर्म के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने उपदेश के महत्व और पालन के प्रभाव को स्पष्ट कर रहे हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि जो मनुष्य उनके द्वारा बताए गए मार्ग — विशेषकर कर्मयोग — का नियमपूर्वक और श्रद्धा से पालन करते हैं, तथा इसमें किसी प्रकार की शंका या दोष नहीं खोजते, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
यहाँ “मे मतम्” से तात्पर्य है श्रीकृष्ण का उपदेश — विशेषकर निष्काम कर्म का सिद्धांत। यह मत केवल एक वैयक्तिक राय नहीं है, बल्कि ब्रह्मज्ञान से उत्पन्न दिव्य दर्शन है। यह आत्मा की मुक्ति की दिशा में एक व्यावहारिक मार्गदर्शिका है।
“श्रद्धावन्तः” वे हैं जो ईश्वर के वचनों में पूर्ण विश्वास रखते हैं — संदेह नहीं करते। “अनसूयन्तः” वे हैं जो भगवान या उनके उपदेशों में दोष नहीं खोजते, ईर्ष्या या तर्क से विरोध नहीं करते।
ऐसे व्यक्ति, चाहे वे सांसारिक कर्म करें भी, फिर भी वे कर्म के बंधन में नहीं बँधते क्योंकि वे उसे ईश्वर के आदेश और निष्काम भावना से करते हैं। इसलिए, वे धीरे-धीरे बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भगवद्गीता के एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत को उजागर करता है — श्रद्धा, समर्पण और अनुसरण का महत्व।
ज्ञान केवल सुनने या पढ़ने से नहीं आता, अनुसरण से आता है। जब कोई व्यक्ति गुरु या ईश्वर की वाणी को, बिना द्वेष या संशय के, मन, वचन और कर्म से अपनाता है — तो वही उसके भीतर परिवर्तन लाती है।
यह श्लोक यह नहीं कहता कि कर्म नहीं करने पर मुक्ति मिलेगी — बल्कि यह कहता है कि ईश्वर के सिद्धांतों का पालन करते हुए किया गया कर्म स्वयं ही मुक्ति का साधन बन जाता है।
इसमें “नित्यमनुतिष्ठन्ति” एक महत्वपूर्ण शब्द है — यह केवल एक बार के पालन की बात नहीं, बल्कि नियमित अभ्यास, नित्य स्मरण और स्थिर संकल्प की बात है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- मे मतम् — ईश्वर का मार्ग, भगवद्गीता का कर्मयोग
- श्रद्धावन्तः — सच्चे साधक, जो आस्था के साथ जीवन जीते हैं
- अनसूयन्तः — जो दोष नहीं देखते, आलोचना नहीं करते
- नित्यमनुतिष्ठन्ति — जो इस ज्ञान को व्यवहार में लाते हैं
- मुच्यन्ते कर्मभिः — कर्म के बंधन से छूट जाते हैं, चाहे वे कर्म करते रहें
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- श्रद्धा और समर्पण के बिना कोई भी आध्यात्मिक मार्ग सफल नहीं हो सकता
- केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं — नित्य पालन और विरोध न करना आवश्यक है
- जो कर्मयोग को सच्ची भावना से अपनाते हैं, वे धीरे-धीरे कर्म के जाल से बाहर आ जाते हैं
- शंका, आलोचना और तर्क में समय गँवाने से कहीं बेहतर है— साधना और विनम्र अनुसरण
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं भगवान के सिद्धांतों को नित्य पालन करने का प्रयास करता हूँ?
क्या मेरी श्रद्धा स्थिर है या परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है?
क्या मैं भगवान की वाणी में दोष ढूँढ़ता हूँ या विनम्रता से उसे स्वीकार करता हूँ?
क्या मेरा कर्म वास्तव में भगवद्गीता के अनुसार है, या केवल बाहरी प्रदर्शन है?
क्या मैं कर्म करते हुए बंधन से मुक्त हो रहा हूँ या और अधिक उलझ रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें स्पष्ट रूप से मार्ग दिखाता है: यदि हम भगवद्गीता के सिद्धांतों को श्रद्धा और नियमितता के साथ अपनाएँ, तो कर्म करते हुए भी हम मुक्त हो सकते हैं।
कर्मबंधन से मुक्ति केवल संन्यास या त्याग से नहीं होती, बल्कि उस चेतना से होती है जिसमें कर्म किया जाए। जब हम श्रीकृष्ण के उपदेशों को जीवन में उतारते हैं, तो हमारा कर्म योग बन जाता है, और योग से मुक्ति का द्वार खुलता है।
इसलिए, जीवन में यदि शांति, संतुलन और मोक्ष की कामना है, तो केवल विचार नहीं, श्रद्धा और अनन्य पालन आवश्यक है।