मूल श्लोक – 29
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥29॥
शब्दार्थ
- सर्वभूतस्थम् — सभी जीवों में स्थित
- आत्मानम् — आत्मा को
- सर्वभूतानि — सभी जीवों को
- च आत्मनि — और आत्मा में
- ईक्षते — देखता है, अनुभव करता है
- योगयुक्तात्मा — योग में स्थित आत्मा वाला (योगी)
- सर्वत्र — हर जगह
- समदर्शनः — समदृष्टि वाला, सबमें एक समान देखने वाला
सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर समान दृष्टि से सभी जीवों में भगवान और भगवान को सभी जीवों में देखता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योग की सर्वोच्च दृष्टि और अनुभूति को प्रकट करते हैं। एक सच्चा योगी कैसा होता है? उसका दृष्टिकोण कैसा होता है? — यही विषय इस श्लोक का सार है।
श्लोक के दो प्रमुख बिंदु:
- “सर्वभूतस्थम् आत्मानं” —
- योगी यह अनुभव करता है कि एक ही आत्मा सब प्राणियों में व्याप्त है।
- कोई भेद नहीं — मानव, पशु, पक्षी, कीट — सबमें वही परम आत्मा है।
- वह विविधताओं में एकता देखता है।
- “सर्वभूतानि च आत्मनि” —
- और वही योगी यह भी देखता है कि सभी प्राणी उसी आत्मा में स्थित हैं।
- यह एक प्रकार का आध्यात्मिक अद्वैत है — न कोई बाहर है, न भीतर — सब एक ही चेतना का विस्तार हैं।
- “ईक्षते योगयुक्तात्मा” —
- यह दृष्टि तभी संभव है जब साधक योग में स्थित हो — अर्थात वह मन, बुद्धि और चित्त से आत्मा में स्थिर हो।
- ऐसा योगी अपनी सीमित दृष्टि से ऊपर उठकर ब्रह्मदृष्टि प्राप्त करता है।
- “सर्वत्र समदर्शनः” —
- वह सब जगह, सब में, एक जैसा देखता है।
- कोई भेद नहीं करता — न जाति, न धर्म, न पद, न रूप।
- उसके लिए सबमें ईश्वर का दर्शन होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक गीता के अद्वैत दर्शन का स्पष्ट उदाहरण है।
- श्रीकृष्ण यहाँ समझा रहे हैं कि योगी केवल चुपचाप ध्यान करने वाला नहीं होता, बल्कि वह समदर्शी होता है।
- यह समदर्शिता केवल सामाजिक समता नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक एकता की अनुभूति है।
- जब “मैं” और “तू” का भेद मिट जाए, वही योग की सिद्धि है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / वाक्यांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
सर्वभूतस्थ आत्मा | परमात्मा का सर्वव्यापी स्वरूप |
सभी जीवों को आत्मा में देखना | ब्रह्म की अद्वैत चेतना को अनुभव करना |
योगयुक्त आत्मा | वह आत्मा जो अभ्यास, ध्यान और भक्ति से परम स्थिति में स्थित हो गई हो |
समदर्शन | दृष्टि की वह अवस्था जहाँ कोई भेदभाव नहीं रहता — केवल एकता का बोध |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्चा योग केवल शरीर या मन का अभ्यास नहीं, बल्कि दृष्टि का परिवर्तन है।
- जब हम सबमें एक ही आत्मा को देखना शुरू करते हैं, तब अहंकार, द्वेष, मतभेद मिटने लगते हैं।
- समदृष्टि ही शांति और करुणा का मूल स्रोत है।
- यह श्लोक हमें प्रेरणा देता है कि हम योग द्वारा ऐसी दृष्टि प्राप्त करें जिसमें कोई पराया न रह जाए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं सब प्राणियों में परमात्मा को देख पाता हूँ?
- क्या मैं दूसरों को भी अपने ही समान आत्मस्वरूप मानता हूँ?
- क्या मेरा दृष्टिकोण सीमित है या मैं अद्वैत की अनुभूति करता हूँ?
- क्या मैंने योग को केवल शरीर तक सीमित रखा है, या आत्मा तक पहुँचाया है?
- क्या मैं अपने व्यवहार में समता, सहानुभूति और समदृष्टि को दर्शाता हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योग की सबसे ऊँची मंज़िल दिखा रहे हैं:
“जब साधक अपने भीतर की आत्मा में स्थित होकर
बाहर सब जीवों में उसी आत्मा को देखता है,
और सभी जीवों को अपने भीतर अनुभव करता है —
वही सच्चा योगी है।”
यही समदृष्टि —
यही अद्वैत अनुभव —
यही करुणा और ज्ञान की पूर्णता —
वही है परम योग।
जो यह देख लेता है, वह ईश्वर को हर रूप में पहचानने लगता है —
और तब संसार उसका नहीं रहता, वह स्वयं ब्रह्म का रूप बन जाता है।