Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 30

मूल श्लोक – 30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥30॥

शब्दार्थ

यः — जो
माम् — मुझे (भगवान को)
पश्यति — देखता है, अनुभव करता है
सर्वत्र — हर स्थान में, सब जगह
सर्वं च — और सब कुछ भी
मयि — मुझमें (भगवान में)
तस्य अहम् — उसके लिए मैं
न प्रणश्यामि — नहीं खोता, लुप्त नहीं होता
सः च मे — वह भी मुझसे
न प्रणश्यति — कभी विलग नहीं होता, मुझसे दूर नहीं होता

वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं, मैं उनके लिए कभी अदृश्य नहीं होता और वे मेरे लिए अदृश्य नहीं होते।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अद्वैत भाव, ईश्वर-दर्शन, और संपूर्णता के ज्ञान का उद्घोष करते हैं।
यह श्लोक गीता के उन गूढ़तम श्लोकों में से है जो आध्यात्मिक दृष्टि की चरम अवस्था को दर्शाता है।

यो मां पश्यति सर्वत्र

भगवान कहते हैं कि जो साधक हर वस्तु, हर व्यक्ति, हर घटना और पूरे संसार में ईश्वर की उपस्थिति को देखता है, वह सच्चा योगी है।
यह दृष्टि केवल आँखों की नहीं, अनुभूति की दृष्टि है।

सर्वं च मयि पश्यति

केवल इतना ही नहीं कि वह भगवान को सबमें देखता है, बल्कि वह यह भी देखता है कि पूरा संसार ईश्वर में ही स्थित है
हर तत्व, हर कण, हर क्रिया – सब मुझमें स्थित है।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति

इस दिव्य दृष्टि को प्राप्त करने वाला साधक कभी ईश्वर से दूर नहीं होता, न ही ईश्वर उससे दूर होते हैं।
यह संबंध अविच्छेद, अटूट और नित्य बन जाता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक अद्वैत वेदांत की भावना को स्पष्ट करता है —
    “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” — सब कुछ ब्रह्म है।
  • ईश्वर और जीव के बीच कोई भौगोलिक दूरी नहीं होती, केवल बोध और दृष्टि की दूरी होती है।
  • जब यह दृष्टि उत्पन्न होती है कि मैं और यह संसार — दोनों भगवान की ही अभिव्यक्ति हैं, तब मोक्ष का द्वार खुलता है।
  • यह वह स्थिति है जहाँ भक्त और भगवान में पूर्ण एकता स्थापित हो जाती है।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्दप्रतीकात्मक अर्थ
मां पश्यति सर्वत्रईश्वर का अनुभव सबमें करना — केवल मानवों में नहीं, कण-कण में
सर्वं च मयि पश्यतिसमस्त सृष्टि को ईश्वर का अंश और स्वरूप देखना
न प्रणश्यामिईश्वर से संपर्क कभी टूटना नहीं
सः च मे न प्रणश्यतिसाधक का अस्तित्व ईश्वर में लीन होकर स्थायी बन जाता है

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • जो व्यक्ति सबमें ईश्वर को देखता है, वह किसी से द्वेष, घृणा या हिंसा नहीं कर सकता।
  • ऐसी दृष्टि से व्यक्ति न केवल भक्त होता है, बल्कि ज्ञानी भी बनता है
  • यह भाव केवल साधना से नहीं, समर्पण, सेवा, और सतत ध्यान से आता है।
  • संसार के प्रति हमारी दृष्टि बदलते ही, हमारे भीतर का ईश्वर प्रकट होता है
  • यही योग की परम स्थिति है — सर्वत्र ईश्वर का दर्शन

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करता हूँ?
  2. क्या मेरा व्यवहार ऐसा है मानो मैं ईश्वर से ही बात कर रहा हूँ?
  3. क्या मैं केवल मूर्ति में ही भगवान को देखता हूँ, या जीवन में भी?
  4. क्या मुझे कभी ऐसा अनुभव हुआ है कि मैं और भगवान अलग नहीं हैं?
  5. क्या मेरे लिए भक्ति केवल पूजा है या एक जीवनदृष्टि भी?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में ईश्वर-दर्शन के चरम बिंदु को प्रकट करते हैं —
जब साधक संसार को ईश्वर से अलग नहीं मानता, और स्वयं को भी ईश्वर का ही अंश समझता है,

तब वह और भगवान — दोनों एकत्व में स्थित हो जाते हैं।
उस स्थिति में कोई वियोग नहीं, कोई दूरी नहीं — केवल नित्य मिलन होता है।

जो ईश्वर को सबमें देखता है, वह कभी ईश्वर से अलग नहीं होता — और ईश्वर भी उसके हृदय में सदा निवास करते हैं।

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